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रेलगाड़ी / कांतिमोहन 'सोज़'

छुक-छुक छुक-छुक रेल चली
हू-हू करती रेल चली ।

बस्ती इधर, उधर जंगल
चुप्पी इधर, उधर हलचल
बालू इधर, उधर दलदल
जमना इधर, उधर चम्बल
करती ठेलम-ठेल चली ।
हू-हू करती रेल चली ।।

बस्ती हो या वीराना
अपना हो या बेगाना
दाना हो या दीवाना
फ़र्क नहीं इसने जाना
सबसे करती मेल चली ।
छुक-छुक करती रेल चली ।।

कभी नदी-सी बहती है
कभी कहानी कहती है
कभी खड़ी ही रहती है
शीत-घाम सब सहती है
आह नहीं मुँह से निकली ।
छुक-छुक करती रेल चली ।।

पगली-सी चिल्लाती-सी
रह-रह शोर मचाती-सी
दिल की आग छिपाती-सी
हँसकर धुआँ उड़ाती-सी
तन पर सब-कुछ झेल चली ।
छुक-छुक करती रेल चली ।।

चलो रेल के संग चलें
बनकर सदा दबंग चलें
मन में लिए उमंग चलें
बनकर वायु-तरंग चलें
चलो कि जैसे रेल चली
करती ठेलमठेल चली ।
छुक-छुक करती रेल चली ।।

आकाशवाणी के लिए 1967 में लिखी गई।