भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रोज़नामचा / लीलाधर मंडलोई

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जो था कहां हूं अपने आकार से बाहर
गलियारे में आजाद घूमने से निष्‍कासित
जब्‍त हुआ परिचय पत्र
और मैं दोस्‍तों के बीच कहीं
अपनी छाया से निलंबित

यहां आवाजें मेरे वास्‍ते हाजिरी को
जानबूझकर अनुपस्थित जो उनके लिए मौन
सिर्फ हमारे असहाय ठिकाने गढ़ हुए साजिश के

चाय की गुमठियां
पान ठेले
यहां तक हाथ ठेले दौड़ाते लोगों के पीछे निगाहें
कोई रास्‍ता नहीं उन तक
जो बैठे हैं खुलेआम

रास्‍ता वही सुझाते हैं कि करो खलास सच को
हत्‍या के माकूल तरीके हैं किताबों में
निरपराध कोई भी हो धर दबोचो
खाली न रहे रोजनामचा

जो देखते नहीं सिवाय सच के
खड़े होंगे कठघरे में
और साबित नहीं कर पाएंगे
काली पट्टी में बंद आंखें देखती हैं जो
शामिल नहीं उसमें सच की हत्‍या