भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है / दुष्यंत कुमार" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दुष्यंत कुमार |संग्रह=साये में धूप / दुष्यन्त कुमार }} [[Ca...) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
|संग्रह=साये में धूप / दुष्यन्त कुमार | |संग्रह=साये में धूप / दुष्यन्त कुमार | ||
}} | }} | ||
− | + | {{KKCatGhazal}} | |
− | + | <poem> | |
रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है | रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है | ||
− | + | यातनाओं के अँधेरे में सफ़र होता है | |
− | यातनाओं के अँधेरे में सफ़र होता है | + | |
− | + | ||
कोई रहने की जगह है मेरे सपनों के लिए | कोई रहने की जगह है मेरे सपनों के लिए | ||
− | + | वो घरौंदा ही सही, मिट्टी का भी घर होता है | |
− | वो घरौंदा ही सही, मिट्टी का भी घर होता है | + | |
− | + | ||
सिर से सीने में कभी पेट से पाओं में कभी | सिर से सीने में कभी पेट से पाओं में कभी | ||
− | + | इक जगह हो तो कहें दर्द इधर होता है | |
− | इक जगह हो तो कहें दर्द इधर होता है | + | |
− | + | ||
ऐसा लगता है कि उड़कर भी कहाँ पहुँचेंगे | ऐसा लगता है कि उड़कर भी कहाँ पहुँचेंगे | ||
− | + | हाथ में जब कोई टूटा हुआ पर होता है | |
− | हाथ में जब कोई टूटा हुआ पर होता है | + | |
− | + | ||
सैर के वास्ते सड़कों पे निकल आते थे | सैर के वास्ते सड़कों पे निकल आते थे | ||
− | + | अब तो आकाश से पथराव का डर होता है</poem> | |
− | अब तो आकाश से पथराव का डर होता है | + |
12:02, 10 मई 2019 के समय का अवतरण
रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है
यातनाओं के अँधेरे में सफ़र होता है
कोई रहने की जगह है मेरे सपनों के लिए
वो घरौंदा ही सही, मिट्टी का भी घर होता है
सिर से सीने में कभी पेट से पाओं में कभी
इक जगह हो तो कहें दर्द इधर होता है
ऐसा लगता है कि उड़कर भी कहाँ पहुँचेंगे
हाथ में जब कोई टूटा हुआ पर होता है
सैर के वास्ते सड़कों पे निकल आते थे
अब तो आकाश से पथराव का डर होता है