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"रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है / दुष्यंत कुमार" के अवतरणों में अंतर

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यातनाओं के अँधेरे में सफ़र होता है
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कोई रहने की जगह है मेरे सपनों के लिए
 
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वो घरौंदा ही सही, मिट्टी का भी घर होता है
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सिर से सीने में कभी पेट से पाओं में कभी
 
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सैर के वास्ते सड़कों पे निकल आते थे
 
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अब तो आकाश से पथराव का डर होता है</poem>
अब तो आकाश से पथराव का डर होता है
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12:02, 10 मई 2019 के समय का अवतरण

रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है
यातनाओं के अँधेरे में सफ़र होता है

कोई रहने की जगह है मेरे सपनों के लिए
वो घरौंदा ही सही, मिट्टी का भी घर होता है

सिर से सीने में कभी पेट से पाओं में कभी
इक जगह हो तो कहें दर्द इधर होता है

ऐसा लगता है कि उड़कर भी कहाँ पहुँचेंगे
हाथ में जब कोई टूटा हुआ पर होता है

सैर के वास्ते सड़कों पे निकल आते थे
अब तो आकाश से पथराव का डर होता है