भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है / दुष्यंत कुमार
Kavita Kosh से
सम्यक (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:29, 25 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दुष्यंत कुमार |संग्रह=साये में धूप / दुष्यन्त कुमार }} [[Ca...)
रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है
यातनाओं के अँधेरे में सफ़र होता है
कोई रहने की जगह है मेरे सपनों के लिए
वो घरौंदा ही सही, मिट्टी का भी घर होता है
सिर से सीने में कभी पेट से पाओं में कभी
इक जगह हो तो कहें दर्द इधर होता है
ऐसा लगता है कि उड़कर भी कहाँ पहुँचेंगे
हाथ में जब कोई टूटा हुआ पर होता है
सैर के वास्ते सड़कों पे निकल आते थे
अब तो आकाश से पथराव का डर होता है