रोज़ सुन सुन के उन अल्फ़ाज़ का डर बैठ गया
दिल किसी तौर सम्हाला तो जिगर बैठ गया
हम बहुत ख़ुश थे कि बारिश के भी दिन बीत गये
धूप दो रोज़ पड़ी ऐसी कि घर बैठ गया
उस परीवश का बयां फिर है ज़बां पर मेरी
राज़दां आज मिरा जाने किधर बैठ गया
कर दिया सोच ने तरतीब को दरहम-बरहम
यूँ समझ लो कि परिंदे पे शजर बैठ गया
मेरे इज़हार से उसको तो बदलना क्या था
उसकी ख़ामोशी का ख़ुद मुझ पे असर बैठ गया