Last modified on 14 मई 2011, at 14:06

रोबोट / किरण अग्रवाल

और एक दिन नींद खुलेगी हमारी
और हम पाएँगे
कि आसमान नहीं है हमारे सिर के ऊपर
कि प्रयोगशालाओं के भीतर से निकलता है तन्दूरी सूरज
कि पक्षी अब उड़ते नहीं महज फड़फड़ाते हैं
और पेड़ पेड़ नहीं ठूँठ नाम से जाने जाते हैं
कि कोख कोख नहीं जलता हुआ रेगिस्तान है
और हृदय सम्वेदन शून्य, बर्फ़ उगलता एक शमशान
और एक दिन डिक्शनरी खोलेंगे हम
और देखेंगे
कि ’आज़ादी’ शब्द हमारे शब्दकोश में नहीं है
कि माता-पिता, प्रेम, दया जैसे उद्‌गार
औबसलीट हो गए हैं अब
और तब बदहवास से
डिस्क में बंद अतीत को स्क्रीन पर टटोलते
हम जानेंगे
कि हम इन्सान नहीं रोबोट हैं