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रोया बहुत कबीरा / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही

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रोया बहुत कबीरा
अपनी
देख-देख कर चादर!

ऐसी मैली हुई कि
कालिख
मिटती नहीं मिटाये
कौन देस के चतुर धोबिया से
जा, इसे धुलायें
तार-तार में
घुसी पसरकर
गाँस-गाँस में उलझी
जान फँसी ऐसी
साँसत में
सुलझाए ना सुलझी
अब तो पसरा एक अँधेरा
लगता
भीतर-बाहर!
चादर भी क्या करे बिचारी
करम कहाँ थे उजले
धरते रहे लपेट इसी में
सौ जनमों के घपले
झूठ प्रवंचन क्रोध नफरतें
मुर्दे गड़े पुराने
आड़ इसी की रचे गये थे
सारे करम घिनाने
चसमे चढ़े हरे आँखों पर
पड़े अकल पे पाथर।

पानी मरा आँख का
पावन, रहा नहीं गंगाजल
धरें कहाँ इसको ले जाकर
कौन घाट धोयें हम मल-मल
घाट-घाट पर कीच मची है
धार-धार में संकट
कौन नोंचले कहाँ न जाने
कदम-कदम पर लंपट
जैसी है
ओढ़े बैठा हूँ
तुम अब
सन्त कहो
या पामर।