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"रोशनी की किरण / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर

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रोशनी की किरण देख पाये नहीं ,  
 
रोशनी की किरण देख पाये नहीं ,  
 
जिन्दगी भर दिये हम जलाते रहे।
 
जिन्दगी भर दिये हम जलाते रहे।
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पंख लेकर कटे, उड़ न पाये कभी
 
पंख लेकर कटे, उड़ न पाये कभी
बाजुओं केा उमर भर हिलाते रहे,
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बाजुओं को उमर भर हिलाते रहे,
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पर  घटी कामनाएं न तिल भर कभी
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दांव पर दांव हम आजमाते रहे
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उठ चले , फिर गिरे, फिर खडे हो गये,
 
उठ चले , फिर गिरे, फिर खडे हो गये,
 
होंठ पर चैन-बंशी सजाते रहे।
 
होंठ पर चैन-बंशी सजाते रहे।
भीतियों ने बसेरे लिये पा्रण में
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पंव बढते हुये डगमगाते रहे,
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भीतियों ने बसेरे लिये प्राण में
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पाँव बढते हुये डगमगाते रहे,
 
मन बिकल हो बिचरता रहा शून्य में  
 
मन बिकल हो बिचरता रहा शून्य में  
 
भावना के सुमन कसमसाते रहे,
 
भावना के सुमन कसमसाते रहे,
रात होेती रही भोर होता रहा,
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रात होती रही भोर होता रहा,
 
ओस के बिन्दु भी झिलमिलाते रहे।
 
ओस के बिन्दु भी झिलमिलाते रहे।
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देख जलते रहे दूसरों को सदा  
 
देख जलते रहे दूसरों को सदा  
 
कर्म पर हम स्वयं के लजाते रहे,
 
कर्म पर हम स्वयं के लजाते रहे,
 
लिप्त होते रहे स्वार्थ के भाव से  
 
लिप्त होते रहे स्वार्थ के भाव से  
 
हर घडी द्वेष में हम नहाते रहे,
 
हर घडी द्वेष में हम नहाते रहे,
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हो न पायीं सफल साधनाऐं कभी,
 
हो न पायीं सफल साधनाऐं कभी,
 
घंटियां उम्र भर हम बजाते रहे।
 
घंटियां उम्र भर हम बजाते रहे।
 
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22:14, 5 मार्च 2012 का अवतरण

रोशनी की किरण

रोशनी की किरण देख पाये नहीं ,
जिन्दगी भर दिये हम जलाते रहे।

पंख लेकर कटे, उड़ न पाये कभी
बाजुओं को उमर भर हिलाते रहे,
पर घटी कामनाएं न तिल भर कभी
दांव पर दांव हम आजमाते रहे

उठ चले , फिर गिरे, फिर खडे हो गये,
होंठ पर चैन-बंशी सजाते रहे।

भीतियों ने बसेरे लिये प्राण में
पाँव बढते हुये डगमगाते रहे,
मन बिकल हो बिचरता रहा शून्य में
भावना के सुमन कसमसाते रहे,

रात होती रही भोर होता रहा,
ओस के बिन्दु भी झिलमिलाते रहे।

देख जलते रहे दूसरों को सदा
कर्म पर हम स्वयं के लजाते रहे,
लिप्त होते रहे स्वार्थ के भाव से
हर घडी द्वेष में हम नहाते रहे,

हो न पायीं सफल साधनाऐं कभी,
घंटियां उम्र भर हम बजाते रहे।