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रौशनी अंधेरे का विलोम नहीं होती / कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह

यहाँ से वहाँ तक दौड़ती रहती है।
कभी-कभी
जब बहुत घना हो जाता है अंधेरा,
लगता है,/ नहीं है--

पेड़-पौधे,/ पर्वत और झरने,
झीलें, नदियाँ--
ग़म में घुलते हुए कुनबे
और घोंसले / ख़ुशियों से कुलबुलाते--

सभी
नीली नींद में डूबे रहते हैं अपनी

मगर तब भी
पर्त-पर-पर्त पड़े अंधेरे की
छाती छेदती रहती है--
अपना पूरे वजूद लिए होती है रौशनी--
रौशनी अंधेरे का विलोम नहीं होती।