भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रौशन कहीं बहार के इम्काँ हुये तो हैं / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:06, 25 दिसम्बर 2019 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रौशन कहीं बहार के इम्काँ हुये तो हैं
गुलशन में चाक चंद गरेबाँ हुये तो हैं

अब भी ख़िज़ाँ का राज है लेकिन कहीं कहीं
गोशे रह्-ए-चमन में ग़ज़ल-ख़्वाँ हुये तो हैं

ठहरी हुयी है शब की सियाही वहीं मगर
कुछ कुछ सहर के रंग पर-अफ़्शाँ हुये तो हैं

इन में लहू जला हो हमारा के जान-ओ-दिल
महफ़िल में कुछ चिराग़ फ़रोज़ाँ हुये तो हैं

हाँ कज करो कुलाह के सब कुछ लुटा के हम
अब बे-नियाज़-ए-गर्दिश-ए-दौरां हुये तो हैं

अहल-ए-क़फ़स की सुबह-ए-चमन में खुलेगी आँख
बाद-ए-सबा से वदा-ए-पैमाँ हुये तो हैं

है दश्त अब अभी दश्त मगर ख़ून-ए-पा से "फ़ैज़"
सैराब चंद ख़ार-ए-मुग़ेलाँ हुये तो हैं