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{{KKRachna
|रचनाकार=तुलसीदास
|संग्रह=रामचरितमानस / तुलसीदास
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|पीछे=सुन्दरकाण्ड सुन्दर काण्ड / रामचरितमानस / तुलसीदास|आगे=लंकाकाण्ड लंका काण्ड / भाग २ / रामचरितमानस / तुलसीदास
|सारणी=रामचरितमानस / तुलसीदास
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<poem>
श्री गणेशाय नमः
श्री जानकीवल्लभो विजयते
श्री रामचरितमानस
<center><font size=1>श्रीगणेशाय नमः</font></center><br><center><font size=1>श्रीजानकीवल्लभो विजयते</font></center><br><br><center><font size=6>श्रीरामचरितमानस</font></center><br><br><center><font size=4>षष्ठ सोपान</font></center><br><br><center><font size=5>लंकाकाण्ड</font></center><br><br>(लंका काण्ड) <span class="shloka">श्लोक<br> रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं<br>योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्।<br>मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं<br>वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्।।1।।<br>देवमुर्वीशरूपम्॥1॥शंखेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं<br>कालव्यालकरालभूषणधरं गंगाशशांकप्रियम्।<br>काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं<br>नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शङ्करम्।।2।।<br>शङ्करम्॥2॥यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम्।<br>खलानां दण्डकृद्योऽसौ शङ्करः शं तनोतु मे।।3।।<br>मे॥3॥दो0-लव निमेष परमानु जुग बरष कलप सर चंड।<br>भजसि न मन तेहि राम को कालु जासु कोदंड।।<br>कोदंड॥<br>सो0-सिंधु बचन सुनि राम सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ।<br>अब बिलंबु केहि काम करहु सेतु उतरै कटकु।।<br>कटकु॥सुनहु भानुकुल केतु जामवंत कर जोरि कह।<br>नाथ नाम तव सेतु नर चढ़ि भव सागर तरिहिं।।<br>तरिहिं॥चौ0-यह लघु जलधि तरत कति बारा। अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा।।<br>पवनकुमारा॥प्रभु प्रताप बड़वानल भारी। सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी।।<br>बारी॥तब रिपु नारी रुदन जल धारा। भरेउ बहोरि भयउ तेहिं खारा।।<br>खारा॥सुनि अति उकुति पवनसुत केरी। हरषे कपि रघुपति तन हेरी।।<br>हेरी॥जामवंत बोले दोउ भाई। नल नीलहि सब कथा सुनाई।।<br>सुनाई॥राम प्रताप सुमिरि मन माहीं। करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं।।<br>नाहीं॥बोलि लिए कपि निकर बहोरी। सकल सुनहु बिनती कछु मोरी।।<br>मोरी॥राम चरन पंकज उर धरहू। कौतुक एक भालु कपि करहू।।<br>करहू॥धावहु मर्कट बिकट बरूथा। आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा।।<br>जूथा॥सुनि कपि भालु चले करि हूहा। जय रघुबीर प्रताप समूहा।।<br>समूहा॥दो0-अति उतंग गिरि पादप लीलहिं लेहिं उठाइ।<br>आनि देहिं नल नीलहि रचहिं ते सेतु बनाइ।।1।।<br>बनाइ॥1॥<br>चौ0-सैल बिसाल आनि कपि देहीं। कंदुक इव नल नील ते लेहीं।।<br>लेहीं॥देखि सेतु अति सुंदर रचना। बिहसि कृपानिधि बोले बचना।।<br>बचना॥परम रम्य उत्तम यह धरनी। महिमा अमित जाइ नहिं बरनी।।<br>बरनी॥करिहउँ इहाँ संभु थापना। मोरे हृदयँ परम कलपना।।<br>कलपना॥सुनि कपीस बहु दूत पठाए। मुनिबर सकल बोलि लै आए।।<br>आए॥लिंग थापि बिधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा।।<br>दूजा॥सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा।।<br>पावा॥संकर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ़ मति थोरी।।<br>थोरी॥दो0-संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।<br>ते नर करहि कलप भरि धोर नरक महुँ बास।।2।।<br>बास॥2॥<br>जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं। ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं।।<br>सिधरिहहिं॥जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि। सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि।।<br>पाइहि॥होइ अकाम जो छल तजि सेइहि। भगति मोरि तेहि संकर देइहि।।<br>देइहि॥मम कृत सेतु जो दरसनु करिही। सो बिनु श्रम भवसागर तरिही।।<br>तरिही॥राम बचन सब के जिय भाए। मुनिबर निज निज आश्रम आए।।<br>आए॥गिरिजा रघुपति कै यह रीती। संतत करहिं प्रनत पर प्रीती।।<br>प्रीती॥बाँधा सेतु नील नल नागर। राम कृपाँ जसु भयउ उजागर।।<br>उजागर॥बूड़हिं आनहि बोरहिं जेई। भए उपल बोहित सम तेई।।<br>तेई॥महिमा यह न जलधि कइ बरनी। पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी।।<br>करनी॥दो0=श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।<br>ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन।।3।।<br>आन॥3॥<br>बाँधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा। देखि कृपानिधि के मन भावा।।<br>भावा॥चली सेन कछु बरनि न जाई। गर्जहिं मर्कट भट समुदाई।।<br>समुदाई॥सेतुबंध ढिग चढ़ि रघुराई। चितव कृपाल सिंधु बहुताई।।<br>बहुताई॥देखन कहुँ प्रभु करुना कंदा। प्रगट भए सब जलचर बृंदा।।<br>बृंदा॥मकर नक्र नाना झष ब्याला। सत जोजन तन परम बिसाला।।<br>बिसाला॥अइसेउ एक तिन्हहि जे खाहीं। एकन्ह कें डर तेपि डेराहीं।।<br>डेराहीं॥प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे। मन हरषित सब भए सुखारे।।<br>सुखारे॥तिन्ह की ओट न देखिअ बारी। मगन भए हरि रूप निहारी।।<br>निहारी॥चला कटकु प्रभु आयसु पाई। को कहि सक कपि दल बिपुलाई।।<br>बिपुलाई॥दो0-सेतुबंध भइ भीर अति कपि नभ पंथ उड़ाहिं।<br>अपर जलचरन्हि ऊपर चढ़ि चढ़ि पारहि जाहिं।।4।।<br>जाहिं॥4॥<br>अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई। बिहँसि चले कृपाल रघुराई।।<br>रघुराई॥सेन सहित उतरे रघुबीरा। कहि न जाइ कपि जूथप भीरा।।<br>भीरा॥सिंधु पार प्रभु डेरा कीन्हा। सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा।।<br>दीन्हा॥खाहु जाइ फल मूल सुहाए। सुनत भालु कपि जहँ तहँ धाए।।<br>धाए॥सब तरु फरे राम हित लागी। रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी।।<br>त्यागी॥खाहिं मधुर फल बटप हलावहिं। लंका सन्मुख सिखर चलावहिं।।<br>चलावहिं॥जहँ कहुँ फिरत निसाचर पावहिं। घेरि सकल बहु नाच नचावहिं।।<br>नचावहिं॥दसनन्हि काटि नासिका काना। कहि प्रभु सुजसु देहिं तब जाना।।<br>जाना॥जिन्ह कर नासा कान निपाता। तिन्ह रावनहि कही सब बाता।।<br>बाता॥सुनत श्रवन बारिधि बंधाना। दस मुख बोलि उठा अकुलाना।।<br>अकुलाना॥दो0-बांध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिंधु बारीस।<br>सत्य तोयनिधि कंपति उदधि पयोधि नदीस।।5।।<br>नदीस॥5॥<br>निज बिकलता बिचारि बहोरी। बिहँसि गयउ ग्रह करि भय भोरी।।<br>भोरी॥मंदोदरीं सुन्यो प्रभु आयो। कौतुकहीं पाथोधि बँधायो।।<br>बँधायो॥कर गहि पतिहि भवन निज आनी। बोली परम मनोहर बानी।।<br>बानी॥चरन नाइ सिरु अंचलु रोपा। सुनहु बचन पिय परिहरि कोपा।।<br>कोपा॥नाथ बयरु कीजे ताही सों। बुधि बल सकिअ जीति जाही सों।।<br>सों॥तुम्हहि रघुपतिहि अंतर कैसा। खलु खद्योत दिनकरहि जैसा।।<br>जैसा॥अतिबल मधु कैटभ जेहिं मारे। महाबीर दितिसुत संघारे।।<br>संघारे॥जेहिं बलि बाँधि सहजभुज मारा। सोइ अवतरेउ हरन महि भारा।।<br>भारा॥तासु बिरोध न कीजिअ नाथा। काल करम जिव जाकें हाथा।।<br>हाथा॥दो0-रामहि सौपि जानकी नाइ कमल पद माथ।<br>सुत कहुँ राज समर्पि बन जाइ भजिअ रघुनाथ।।6।।<br>रघुनाथ॥6॥<br>नाथ दीनदयाल रघुराई। बाघउ सनमुख गएँ न खाई।।<br>खाई॥चाहिअ करन सो सब करि बीते। तुम्ह सुर असुर चराचर जीते।।<br>जीते॥संत कहहिं असि नीति दसानन। चौथेंपन जाइहि नृप कानन।।<br>कानन॥तासु भजन कीजिअ तहँ भर्ता। जो कर्ता पालक संहर्ता।।<br>संहर्ता॥सोइ रघुवीर प्रनत अनुरागी। भजहु नाथ ममता सब त्यागी।।<br>त्यागी॥मुनिबर जतनु करहिं जेहि लागी। भूप राजु तजि होहिं बिरागी।।<br>बिरागी॥सोइ कोसलधीस रघुराया। आयउ करन तोहि पर दाया।।<br>दाया॥जौं पिय मानहु मोर सिखावन। सुजसु होइ तिहुँ पुर अति पावन।।<br>पावन॥दो0-अस कहि नयन नीर भरि गहि पद कंपित गात।<br>नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होइ अहिवात।।7।।<br>अहिवात॥7॥<br>तब रावन मयसुता उठाई। कहै लाग खल निज प्रभुताई।।<br>प्रभुताई॥सुनु तै प्रिया बृथा भय माना। जग जोधा को मोहि समाना।।<br>समाना॥बरुन कुबेर पवन जम काला। भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला।।<br>दिगपाला॥देव दनुज नर सब बस मोरें। कवन हेतु उपजा भय तोरें।।<br>तोरें॥नाना बिधि तेहि कहेसि बुझाई। सभाँ बहोरि बैठ सो जाई।।<br>जाई॥मंदोदरीं हदयँ अस जाना। काल बस्य उपजा अभिमाना।।<br>अभिमाना॥सभाँ आइ मंत्रिन्ह तेंहि बूझा। करब कवन बिधि रिपु सैं जूझा।।<br>जूझा॥कहहिं सचिव सुनु निसिचर नाहा। बार बार प्रभु पूछहु काहा।।<br>काहा॥कहहु कवन भय करिअ बिचारा। नर कपि भालु अहार हमारा।।<br>हमारा॥दो0-सब के बचन श्रवन सुनि कह प्रहस्त कर जोरि।<br>निति बिरोध न करिअ प्रभु मत्रिंन्ह मति अति थोरि।।8।।<br>थोरि॥8॥<br>कहहिं सचिव सठ ठकुरसोहाती। नाथ न पूर आव एहि भाँती।।<br>भाँती॥बारिधि नाघि एक कपि आवा। तासु चरित मन महुँ सबु गावा।।<br>गावा॥छुधा न रही तुम्हहि तब काहू। जारत नगरु कस न धरि खाहू।।<br>खाहू॥सुनत नीक आगें दुख पावा। सचिवन अस मत प्रभुहि सुनावा।।<br>सुनावा॥जेहिं बारीस बँधायउ हेला। उतरेउ सेन समेत सुबेला।।<br>सुबेला॥सो भनु मनुज खाब हम भाई। बचन कहहिं सब गाल फुलाई।।<br>फुलाई॥तात बचन मम सुनु अति आदर। जनि मन गुनहु मोहि करि कादर।।<br>कादर॥प्रिय बानी जे सुनहिं जे कहहीं। ऐसे नर निकाय जग अहहीं।।<br>अहहीं॥बचन परम हित सुनत कठोरे। सुनहिं जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे।।<br>थोरे॥प्रथम बसीठ पठउ सुनु नीती। सीता देइ करहु पुनि प्रीती।।<br>प्रीती॥दो0-नारि पाइ फिरि जाहिं जौं तौ न बढ़ाइअ रारि।<br>नाहिं त सन्मुख समर महि तात करिअ हठि मारि।।9।।<br>मारि॥9॥<br>यह मत जौं मानहु प्रभु मोरा। उभय प्रकार सुजसु जग तोरा।।<br>तोरा॥सुत सन कह दसकंठ रिसाई। असि मति सठ केहिं तोहि सिखाई।।<br>सिखाई॥अबहीं ते उर संसय होई। बेनुमूल सुत भयहु घमोई।।<br>घमोई॥सुनि पितु गिरा परुष अति घोरा। चला भवन कहि बचन कठोरा।।<br>कठोरा॥हित मत तोहि न लागत कैसें। काल बिबस कहुँ भेषज जैसें।।<br>जैसें॥संध्या समय जानि दससीसा। भवन चलेउ निरखत भुज बीसा।।<br>बीसा॥लंका सिखर उपर आगारा। अति बिचित्र तहँ होइ अखारा।।<br>अखारा॥बैठ जाइ तेही मंदिर रावन। लागे किंनर गुन गन गावन।।<br>गावन॥बाजहिं ताल पखाउज बीना। नृत्य करहिं अपछरा प्रबीना।।<br>प्रबीना॥दो0-सुनासीर सत सरिस सो संतत करइ बिलास।<br>परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास।।10।।<br>त्रास॥10॥<br>इहाँ सुबेल सैल रघुबीरा। उतरे सेन सहित अति भीरा।।<br>भीरा॥सिखर एक उतंग अति देखी। परम रम्य सम सुभ्र बिसेषी।।<br>बिसेषी॥तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए। लछिमन रचि निज हाथ डसाए।।<br>डसाए॥ता पर रूचिर मृदुल मृगछाला। तेहीं आसान आसीन कृपाला।।<br>कृपाला॥प्रभु कृत सीस कपीस उछंगा। बाम दहिन दिसि चाप निषंगा।।<br>निषंगा॥दुहुँ कर कमल सुधारत बाना। कह लंकेस मंत्र लगि काना।।<br>काना॥बड़भागी अंगद हनुमाना। चरन कमल चापत बिधि नाना।।<br>नाना॥प्रभु पाछें लछिमन बीरासन। कटि निषंग कर बान सरासन।।<br>सरासन॥दो0-एहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन।<br>धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन।।11लयलीन॥11(क)।।<br>पूरब दिसा बिलोकि प्रभु देखा उदित मंयक।<br>कहत सबहि देखहु ससिहि मृगपति सरिस असंक।।11असंक॥11(ख)।।<br><br>पूरब दिसि गिरिगुहा निवासी। परम प्रताप तेज बल रासी।।<br>रासी॥मत्त नाग तम कुंभ बिदारी। ससि केसरी गगन बन चारी।।<br>चारी॥बिथुरे नभ मुकुताहल तारा। निसि सुंदरी केर सिंगारा।।<br>सिंगारा॥कह प्रभु ससि महुँ मेचकताई। कहहु काह निज निज मति भाई।।<br>भाई॥कह सुग़ीव सुनहु रघुराई। ससि महुँ प्रगट भूमि कै झाँई।।<br>झाँई॥मारेउ राहु ससिहि कह कोई। उर महँ परी स्यामता सोई।।<br>सोई॥कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा। सार भाग ससि कर हरि लीन्हा।।<br>लीन्हा॥छिद्र सो प्रगट इंदु उर माहीं। तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीं।।<br>परिछाहीं॥प्रभु कह गरल बंधु ससि केरा। अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा।।<br>बसेरा॥बिष संजुत कर निकर पसारी। जारत बिरहवंत नर नारी।।<br>नारी॥दो0-कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हारा प्रिय दास।<br>तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास।।12अभास॥12(क)।।<br>नवान्हपारायण।। सातवाँ विश्राम<br>पवन तनय के बचन सुनि बिहँसे रामु सुजान।<br>दच्छिन दिसि अवलोकि प्रभु बोले कृपा निधान।।12निधान॥12(ख)।।<br> नवान्हपारायण॥ सातवाँ विश्राम<br>देखु बिभीषन दच्छिन आसा। घन घंमड दामिनि बिलासा।।<br>बिलासा॥मधुर मधुर गरजइ घन घोरा। होइ बृष्टि जनि उपल कठोरा।।<br>कठोरा॥कहत बिभीषन सुनहु कृपाला। होइ न तड़ित न बारिद माला।।<br>माला॥लंका सिखर उपर आगारा। तहँ दसकंघर देख अखारा।।<br>अखारा॥छत्र मेघडंबर सिर धारी। सोइ जनु जलद घटा अति कारी।।<br>कारी॥मंदोदरी श्रवन ताटंका। सोइ प्रभु जनु दामिनी दमंका।।<br>दमंका॥बाजहिं ताल मृदंग अनूपा। सोइ रव मधुर सुनहु सुरभूपा।।<br>सुरभूपा॥प्रभु मुसुकान समुझि अभिमाना। चाप चढ़ाइ बान संधाना।।<br>संधाना॥दो0-छत्र मुकुट ताटंक तब हते एकहीं बान।<br>सबकें देखत महि परे मरमु न कोऊ जान।।13जान॥13(क)।।<br>अस कौतुक करि राम सर प्रबिसेउ आइ निषंग।<br>रावन सभा ससंक सब देखि महा रसभंग।।13रसभंग॥13(ख)।।<br><br>कंप न भूमि न मरुत बिसेषा। अस्त्र सस्त्र कछु नयन न देखा।।<br>देखा॥सोचहिं सब निज हृदय मझारी। असगुन भयउ भयंकर भारी।।<br>भारी॥दसमुख देखि सभा भय पाई। बिहसि बचन कह जुगुति बनाई।।<br>बनाई॥सिरउ गिरे संतत सुभ जाही। मुकुट परे कस असगुन ताही।।<br>ताही॥सयन करहु निज निज गृह जाई। गवने भवन सकल सिर नाई।।<br>नाई॥मंदोदरी सोच उर बसेऊ। जब ते श्रवनपूर महि खसेऊ।।<br>खसेऊ॥सजल नयन कह जुग कर जोरी। सुनहु प्रानपति बिनती मोरी।।<br>मोरी॥कंत राम बिरोध परिहरहू। जानि मनुज जनि हठ मन धरहू।।<br>धरहू॥दो0-बिस्वरुप रघुबंस मनि करहु बचन बिस्वासु।<br>लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु।।14।।<br>जासु॥14॥<br>पद पाताल सीस अज धामा। अपर लोक अँग अँग बिश्रामा।।<br>बिश्रामा॥भृकुटि बिलास भयंकर काला। नयन दिवाकर कच घन माला।।<br>माला॥जासु घ्रान अस्विनीकुमारा। निसि अरु दिवस निमेष अपारा।।<br>अपारा॥श्रवन दिसा दस बेद बखानी। मारुत स्वास निगम निज बानी।।<br>बानी॥अधर लोभ जम दसन कराला। माया हास बाहु दिगपाला।।<br>दिगपाला॥आनन अनल अंबुपति जीहा। उतपति पालन प्रलय समीहा।।<br>समीहा॥रोम राजि अष्टादस भारा। अस्थि सैल सरिता नस जारा।।<br>जारा॥उदर उदधि अधगो जातना। जगमय प्रभु का बहु कलपना।।<br>कलपना॥दो0-अहंकार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान।<br>मनुज बास सचराचर रुप राम भगवान।।15 क।।<br>भगवान॥15(क)॥अस बिचारि सुनु प्रानपति प्रभु सन बयरु बिहाइ।<br>प्रीति करहु रघुबीर पद मम अहिवात न जाइ।।15 ख।।<br>जाइ॥15(ख)॥<br>बिहँसा नारि बचन सुनि काना। अहो मोह महिमा बलवाना।।<br>बलवाना॥नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं।।<br>रहहीं॥साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया।।<br>अदाया॥रिपु कर रुप सकल तैं गावा। अति बिसाल भय मोहि सुनावा।।<br>सुनावा॥सो सब प्रिया सहज बस मोरें। समुझि परा प्रसाद अब तोरें।।<br>तोरें॥जानिउँ प्रिया तोरि चतुराई। एहि बिधि कहहु मोरि प्रभुताई।।<br>प्रभुताई॥तव बतकही गूढ़ मृगलोचनि। समुझत सुखद सुनत भय मोचनि।।<br>मोचनि॥मंदोदरि मन महुँ अस ठयऊ। पियहि काल बस मतिभ्रम भयऊ।।<br>भयऊ॥दो0-एहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकंध।<br>सहज असंक लंकपति सभाँ गयउ मद अंध।।16अंध॥16(क)।।<br>सो0-फूलह फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।<br>मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम।।16सम॥16(ख)।।<br><br>इहाँ प्रात जागे रघुराई। पूछा मत सब सचिव बोलाई।।<br>बोलाई॥कहहु बेगि का करिअ उपाई। जामवंत कह पद सिरु नाई।।<br>नाई॥सुनु सर्बग्य सकल उर बासी। बुधि बल तेज धर्म गुन रासी।।<br>रासी॥मंत्र कहउँ निज मति अनुसारा। दूत पठाइअ बालिकुमारा।।<br>बालिकुमारा॥नीक मंत्र सब के मन माना। अंगद सन कह कृपानिधाना।।<br>कृपानिधाना॥बालितनय बुधि बल गुन धामा। लंका जाहु तात मम कामा।।<br>कामा॥बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊँ। परम चतुर मैं जानत अहऊँ।।<br>अहऊँ॥काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई।।<br>सोई॥सो0-प्रभु अग्या धरि सीस चरन बंदि अंगद उठेउ।<br>सोइ गुन सागर ईस राम कृपा जा पर करहु।।17करहु॥17(क)।।<br>स्वयं सिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियउ।<br>अस बिचारि जुबराज तन पुलकित हरषित हियउ।।17हियउ॥17(ख)।।<br><br>बंदि चरन उर धरि प्रभुताई। अंगद चलेउ सबहि सिरु नाई।।<br>नाई॥प्रभु प्रताप उर सहज असंका। रन बाँकुरा बालिसुत बंका।।<br>बंका॥पुर पैठत रावन कर बेटा। खेलत रहा सो होइ गै भैंटा।।<br>भैंटा॥बातहिं बात करष बढ़ि आई। जुगल अतुल बल पुनि तरुनाई।।<br>तरुनाई॥तेहि अंगद कहुँ लात उठाई। गहि पद पटकेउ भूमि भवाँई।।<br>भवाँई॥निसिचर निकर देखि भट भारी। जहँ तहँ चले न सकहिं पुकारी।।<br>पुकारी॥एक एक सन मरमु न कहहीं। समुझि तासु बध चुप करि रहहीं।।<br>रहहीं॥भयउ कोलाहल नगर मझारी। आवा कपि लंका जेहीं जारी।।<br>जारी॥अब धौं कहा करिहि करतारा। अति सभीत सब करहिं बिचारा।।<br>बिचारा॥बिनु पूछें मगु देहिं दिखाई। जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई।।<br>सुखाई॥दो0-गयउ सभा दरबार तब सुमिरि राम पद कंज।<br>सिंह ठवनि इत उत चितव धीर बीर बल पुंज।।18।।<br>पुंज॥18॥<br>तुरत निसाचर एक पठावा। समाचार रावनहि जनावा।।<br>जनावा॥सुनत बिहँसि बोला दससीसा। आनहु बोलि कहाँ कर कीसा।।<br>कीसा॥आयसु पाइ दूत बहु धाए। कपिकुंजरहि बोलि लै आए।।<br>आए॥अंगद दीख दसानन बैंसें। सहित प्रान कज्जलगिरि जैसें।।<br>जैसें॥भुजा बिटप सिर सृंग समाना। रोमावली लता जनु नाना।।<br>नाना॥मुख नासिका नयन अरु काना। गिरि कंदरा खोह अनुमाना।।<br>अनुमाना॥गयउ सभाँ मन नेकु न मुरा। बालितनय अतिबल बाँकुरा।।<br>बाँकुरा॥उठे सभासद कपि कहुँ देखी। रावन उर भा क्रौध बिसेषी।।<br>बिसेषी॥दो0-जथा मत्त गज जूथ महुँ पंचानन चलि जाइ।<br>राम प्रताप सुमिरि मन बैठ सभाँ सिरु नाइ।।19।।<br>नाइ॥19॥<br>कह दसकंठ कवन तैं बंदर। मैं रघुबीर दूत दसकंधर।।<br>दसकंधर॥मम जनकहि तोहि रही मिताई। तव हित कारन आयउँ भाई।।<br>भाई॥उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती। सिव बिरंचि पूजेहु बहु भाँती।।<br>भाँती॥बर पायहु कीन्हेहु सब काजा। जीतेहु लोकपाल सब राजा।।<br>राजा॥नृप अभिमान मोह बस किंबा। हरि आनिहु सीता जगदंबा।।<br>जगदंबा॥अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा। सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा।।<br>तोरा॥दसन गहहु तृन कंठ कुठारी। परिजन सहित संग निज नारी।।<br>नारी॥सादर जनकसुता करि आगें। एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें।।<br>त्यागें॥दो0-प्रनतपाल रघुबंसमनि त्राहि त्राहि अब मोहि।<br>आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करैगो तोहि।।20।।<br>तोहि॥20॥<br>रे कपिपोत बोलु संभारी। मूढ़ न जानेहि मोहि सुरारी।।<br>सुरारी॥कहु निज नाम जनक कर भाई। केहि नातें मानिऐ मिताई।।<br>मिताई॥अंगद नाम बालि कर बेटा। तासों कबहुँ भई ही भेटा।।<br>भेटा॥अंगद बचन सुनत सकुचाना। रहा बालि बानर मैं जाना।।<br>जाना॥अंगद तहीं बालि कर बालक। उपजेहु बंस अनल कुल घालक।।<br>घालक॥गर्भ न गयहु ब्यर्थ तुम्ह जायहु। निज मुख तापस दूत कहायहु।।<br>कहायहु॥अब कहु कुसल बालि कहँ अहई। बिहँसि बचन तब अंगद कहई।।<br>कहई॥दिन दस गएँ बालि पहिं जाई। बूझेहु कुसल सखा उर लाई।।<br>लाई॥राम बिरोध कुसल जसि होई। सो सब तोहि सुनाइहि सोई।।<br>सोई॥सुनु सठ भेद होइ मन ताकें। श्रीरघुबीर हृदय नहिं जाकें।।<br>जाकें॥दो0-हम कुल घालक सत्य तुम्ह कुल पालक दससीस।<br>अंधउ बधिर न अस कहहिं नयन कान तव बीस।।21।<br>बीस॥21।<br>सिव बिरंचि सुर मुनि समुदाई। चाहत जासु चरन सेवकाई।।<br>सेवकाई॥तासु दूत होइ हम कुल बोरा। अइसिहुँ मति उर बिहर न तोरा।।<br>तोरा॥सुनि कठोर बानी कपि केरी। कहत दसानन नयन तरेरी।।<br>तरेरी॥खल तव कठिन बचन सब सहऊँ। नीति धर्म मैं जानत अहऊँ।।<br>अहऊँ॥कह कपि धर्मसीलता तोरी। हमहुँ सुनी कृत पर त्रिय चोरी।।<br>चोरी॥देखी नयन दूत रखवारी। बूड़ि न मरहु धर्म ब्रतधारी।।<br>ब्रतधारी॥कान नाक बिनु भगिनि निहारी। छमा कीन्हि तुम्ह धर्म बिचारी।।<br>बिचारी॥धर्मसीलता तव जग जागी। पावा दरसु हमहुँ बड़भागी।।<br>बड़भागी॥दो0-जनि जल्पसि जड़ जंतु कपि सठ बिलोकु मम बाहु।<br>लोकपाल बल बिपुल ससि ग्रसन हेतु सब राहु।।22राहु॥22(क)।।<br>पुनि नभ सर मम कर निकर कमलन्हि पर करि बास।<br>सोभत भयउ मराल इव संभु सहित कैलास।।22कैलास॥22(ख)।।<br><br>तुम्हरे कटक माझ सुनु अंगद। मो सन भिरिहि कवन जोधा बद।।<br>बद॥तव प्रभु नारि बिरहँ बलहीना। अनुज तासु दुख दुखी मलीना।।<br>मलीना॥तुम्ह सुग्रीव कूलद्रुम दोऊ। अनुज हमार भीरु अति सोऊ।।<br>सोऊ॥जामवंत मंत्री अति बूढ़ा। सो कि होइ अब समरारूढ़ा।।<br>समरारूढ़ा॥सिल्पि कर्म जानहिं नल नीला। है कपि एक महा बलसीला।।<br>बलसीला॥आवा प्रथम नगरु जेंहिं जारा। सुनत बचन कह बालिकुमारा।।<br>बालिकुमारा॥सत्य बचन कहु निसिचर नाहा। साँचेहुँ कीस कीन्ह पुर दाहा।।<br>दाहा॥रावन नगर अल्प कपि दहई। सुनि अस बचन सत्य को कहई।।<br>कहई॥जो अति सुभट सराहेहु रावन। सो सुग्रीव केर लघु धावन।।<br>धावन॥चलइ बहुत सो बीर न होई। पठवा खबरि लेन हम सोई।।<br>सोई॥दो0-सत्य नगरु कपि जारेउ बिनु प्रभु आयसु पाइ।<br>फिरि न गयउ सुग्रीव पहिं तेहिं भय रहा लुकाइ।।23लुकाइ॥23(क)।।<br>सत्य कहहि दसकंठ सब मोहि न सुनि कछु कोह।<br>कोउ न हमारें कटक अस तो सन लरत जो सोह।।23सोह॥23(ख)।।<br>प्रीति बिरोध समान सन करिअ नीति असि आहि।<br>जौं मृगपति बध मेड़ुकन्हि भल कि कहइ कोउ ताहि।।23ताहि॥23(ग)।।<br>जद्यपि लघुता राम कहुँ तोहि बधें बड़ दोष।<br>तदपि कठिन दसकंठ सुनु छत्र जाति कर रोष।।23रोष॥23(घ)।।<br>बक्र उक्ति धनु बचन सर हृदय दहेउ रिपु कीस।<br>प्रतिउत्तर सड़सिन्ह मनहुँ काढ़त भट दससीस।।23दससीस॥23(ङ)।।<br>हँसि बोलेउ दसमौलि तब कपि कर बड़ गुन एक।<br>जो प्रतिपालइ तासु हित करइ उपाय अनेक।।23अनेक॥23(छ)।।<br><br>धन्य कीस जो निज प्रभु काजा। जहँ तहँ नाचइ परिहरि लाजा।।<br>लाजा॥नाचि कूदि करि लोग रिझाई। पति हित करइ धर्म निपुनाई।।<br>निपुनाई॥अंगद स्वामिभक्त तव जाती। प्रभु गुन कस न कहसि एहि भाँती।।<br>भाँती॥मैं गुन गाहक परम सुजाना। तव कटु रटनि करउँ नहिं काना।।<br>काना॥कह कपि तव गुन गाहकताई। सत्य पवनसुत मोहि सुनाई।।<br>सुनाई॥बन बिधंसि सुत बधि पुर जारा। तदपि न तेहिं कछु कृत अपकारा।।<br>अपकारा॥सोइ बिचारि तव प्रकृति सुहाई। दसकंधर मैं कीन्हि ढिठाई।।<br>ढिठाई॥देखेउँ आइ जो कछु कपि भाषा। तुम्हरें लाज न रोष न माखा।।<br>माखा॥जौं असि मति पितु खाए कीसा। कहि अस बचन हँसा दससीसा।।<br>दससीसा॥पितहि खाइ खातेउँ पुनि तोही। अबहीं समुझि परा कछु मोही।।<br>मोही॥बालि बिमल जस भाजन जानी। हतउँ न तोहि अधम अभिमानी।।<br>अभिमानी॥कहु रावन रावन जग केते। मैं निज श्रवन सुने सुनु जेते।।<br>जेते॥बलिहि जितन एक गयउ पताला। राखेउ बाँधि सिसुन्ह हयसाला।।<br>हयसाला॥खेलहिं बालक मारहिं जाई। दया लागि बलि दीन्ह छोड़ाई।।<br>छोड़ाई॥एक बहोरि सहसभुज देखा। धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा।।<br>बिसेषा॥कौतुक लागि भवन लै आवा। सो पुलस्ति मुनि जाइ छोड़ावा।।<br>छोड़ावा॥दो0-एक कहत मोहि सकुच अति रहा बालि की काँख।<br>इन्ह महुँ रावन तैं कवन सत्य बदहि तजि माख।।24।।<br>माख॥24॥<br>सुनु सठ सोइ रावन बलसीला। हरगिरि जान जासु भुज लीला।।<br>लीला॥जान उमापति जासु सुराई। पूजेउँ जेहि सिर सुमन चढ़ाई।।<br>चढ़ाई॥सिर सरोज निज करन्हि उतारी। पूजेउँ अमित बार त्रिपुरारी।।<br>त्रिपुरारी॥भुज बिक्रम जानहिं दिगपाला। सठ अजहूँ जिन्ह कें उर साला।।<br>साला॥जानहिं दिग्गज उर कठिनाई। जब जब भिरउँ जाइ बरिआई।।<br>बरिआई॥जिन्ह के दसन कराल न फूटे। उर लागत मूलक इव टूटे।।<br>टूटे॥जासु चलत डोलति इमि धरनी। चढ़त मत्त गज जिमि लघु तरनी।।<br>तरनी॥सोइ रावन जग बिदित प्रतापी। सुनेहि न श्रवन अलीक प्रलापी।।<br>प्रलापी॥दो0-तेहि रावन कहँ लघु कहसि नर कर करसि बखान।<br>रे कपि बर्बर खर्ब खल अब जाना तव ग्यान।।25।।<br>ग्यान॥25॥<br>सुनि अंगद सकोप कह बानी। बोलु सँभारि अधम अभिमानी।।<br>अभिमानी॥सहसबाहु भुज गहन अपारा। दहन अनल सम जासु कुठारा।।<br>कुठारा॥जासु परसु सागर खर धारा। बूड़े नृप अगनित बहु बारा।।<br>बारा॥तासु गर्ब जेहि देखत भागा। सो नर क्यों दससीस अभागा।।<br>अभागा॥राम मनुज कस रे सठ बंगा। धन्वी कामु नदी पुनि गंगा।।<br>गंगा॥पसु सुरधेनु कल्पतरु रूखा। अन्न दान अरु रस पीयूषा।।<br>पीयूषा॥बैनतेय खग अहि सहसानन। चिंतामनि पुनि उपल दसानन।।<br>दसानन॥सुनु मतिमंद लोक बैकुंठा। लाभ कि रघुपति भगति अकुंठा।।<br>अकुंठा॥दो0-सेन सहित तब मान मथि बन उजारि पुर जारि।।<br>जारि॥कस रे सठ हनुमान कपि गयउ जो तव सुत मारि।।26।।<br>मारि॥26॥<br>सुनु रावन परिहरि चतुराई। भजसि न कृपासिंधु रघुराई।।<br>रघुराई॥जौ खल भएसि राम कर द्रोही। ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही।।<br>तोही॥मूढ़ बृथा जनि मारसि गाला। राम बयर अस होइहि हाला।।<br>हाला॥तव सिर निकर कपिन्ह के आगें। परिहहिं धरनि राम सर लागें।।<br>लागें॥ते तव सिर कंदुक सम नाना। खेलहहिं भालु कीस चौगाना।।<br>चौगाना॥जबहिं समर कोपहि रघुनायक। छुटिहहिं अति कराल बहु सायक।।<br>सायक॥तब कि चलिहि अस गाल तुम्हारा। अस बिचारि भजु राम उदारा।।<br>उदारा॥सुनत बचन रावन परजरा। जरत महानल जनु घृत परा।।<br>परा॥दो0-कुंभकरन अस बंधु मम सुत प्रसिद्ध सक्रारि।<br>मोर पराक्रम नहिं सुनेहि जितेउँ चराचर झारि।।27।।<br>झारि॥27॥<br>सठ साखामृग जोरि सहाई। बाँधा सिंधु इहइ प्रभुताई।।<br>प्रभुताई॥नाघहिं खग अनेक बारीसा। सूर न होहिं ते सुनु सब कीसा।।<br>कीसा॥मम भुज सागर बल जल पूरा। जहँ बूड़े बहु सुर नर सूरा।।<br>सूरा॥बीस पयोधि अगाध अपारा। को अस बीर जो पाइहि पारा।।<br>पारा॥दिगपालन्ह मैं नीर भरावा। भूप सुजस खल मोहि सुनावा।।<br>सुनावा॥जौं पै समर सुभट तव नाथा। पुनि पुनि कहसि जासु गुन गाथा।।<br>गाथा॥तौ बसीठ पठवत केहि काजा। रिपु सन प्रीति करत नहिं लाजा।।<br>लाजा॥हरगिरि मथन निरखु मम बाहू। पुनि सठ कपि निज प्रभुहि सराहू।।<br>सराहू॥दो0-सूर कवन रावन सरिस स्वकर काटि जेहिं सीस।<br>हुने अनल अति हरष बहु बार साखि गौरीस।।28।।<br>गौरीस॥28॥<br>जरत बिलोकेउँ जबहिं कपाला। बिधि के लिखे अंक निज भाला।।<br>भाला॥नर कें कर आपन बध बाँची। हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची।।<br>असाँची॥सोउ मन समुझि त्रास नहिं मोरें। लिखा बिरंचि जरठ मति भोरें।।<br>भोरें॥आन बीर बल सठ मम आगें। पुनि पुनि कहसि लाज पति त्यागे।।<br>त्यागे॥कह अंगद सलज्ज जग माहीं। रावन तोहि समान कोउ नाहीं।।<br>नाहीं॥लाजवंत तव सहज सुभाऊ। निज मुख निज गुन कहसि न काऊ।।<br>काऊ॥सिर अरु सैल कथा चित रही। ताते बार बीस तैं कही।।<br>कही॥सो भुजबल राखेउ उर घाली। जीतेहु सहसबाहु बलि बाली।।<br>बाली॥सुनु मतिमंद देहि अब पूरा। काटें सीस कि होइअ सूरा।।<br>सूरा॥इंद्रजालि कहु कहिअ न बीरा। काटइ निज कर सकल सरीरा।।<br>सरीरा॥दो0-जरहिं पतंग मोह बस भार बहहिं खर बृंद।<br>ते नहिं सूर कहावहिं समुझि देखु मतिमंद।।29।।<br>मतिमंद॥29॥<br>अब जनि बतबढ़ाव खल करही। सुनु मम बचन मान परिहरही।।<br>परिहरही॥दसमुख मैं न बसीठीं आयउँ। अस बिचारि रघुबीष पठायउँ।।<br>पठायउँ॥बार बार अस कहइ कृपाला। नहिं गजारि जसु बधें सृकाला।।<br>सृकाला॥मन महुँ समुझि बचन प्रभु केरे। सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे।।<br>तेरे॥नाहिं त करि मुख भंजन तोरा। लै जातेउँ सीतहि बरजोरा।।<br>बरजोरा॥जानेउँ तव बल अधम सुरारी। सूनें हरि आनिहि परनारी।।<br>परनारी॥तैं निसिचर पति गर्ब बहूता। मैं रघुपति सेवक कर दूता।।<br>दूता॥जौं न राम अपमानहि डरउँ। तोहि देखत अस कौतुक करऊँ।।<br>करऊँ॥दो0-तोहि पटकि महि सेन हति चौपट करि तव गाउँ।<br>तव जुबतिन्ह समेत सठ जनकसुतहि लै जाउँ।।30।।<br>जाउँ॥30॥<br>जौ अस करौं तदपि न बड़ाई। मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई।।<br>मनुसाई॥कौल कामबस कृपिन बिमूढ़ा। अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा।।<br>बूढ़ा॥सदा रोगबस संतत क्रोधी। बिष्नु बिमूख श्रुति संत बिरोधी।।<br>बिरोधी॥तनु पोषक निंदक अघ खानी। जीवन सव सम चौदह प्रानी।।<br>प्रानी॥अस बिचारि खल बधउँ न तोही। अब जनि रिस उपजावसि मोही।।<br>मोही॥सुनि सकोप कह निसिचर नाथा। अधर दसन दसि मीजत हाथा।।<br>हाथा॥रे कपि अधम मरन अब चहसी। छोटे बदन बात बड़ि कहसी।।<br>कहसी॥कटु जल्पसि जड़ कपि बल जाकें। बल प्रताप बुधि तेज न ताकें।।<br>ताकें॥दो0-अगुन अमान जानि तेहि दीन्ह पिता बनबास।<br>सो दुख अरु जुबती बिरह पुनि निसि दिन मम त्रास।।31त्रास॥31(क)।।<br>जिन्ह के बल कर गर्ब तोहि अइसे मनुज अनेक।<br>खाहीं निसाचर दिवस निसि मूढ़ समुझु तजि टेक।।31टेक॥31(ख)।।<br><br>जब तेहिं कीन्ह राम कै निंदा। क्रोधवंत अति भयउ कपिंदा।।<br>कपिंदा॥हरि हर निंदा सुनइ जो काना। होइ पाप गोघात समाना।।<br>समाना॥कटकटान कपिकुंजर भारी। दुहु भुजदंड तमकि महि मारी।।<br>मारी॥डोलत धरनि सभासद खसे। चले भाजि भय मारुत ग्रसे।।<br>ग्रसे॥गिरत सँभारि उठा दसकंधर। भूतल परे मुकुट अति सुंदर।।<br>सुंदर॥कछु तेहिं लै निज सिरन्हि सँवारे। कछु अंगद प्रभु पास पबारे।।<br>पबारे॥आवत मुकुट देखि कपि भागे। दिनहीं लूक परन बिधि लागे।।<br>लागे॥की रावन करि कोप चलाए। कुलिस चारि आवत अति धाए।।<br>धाए॥कह प्रभु हँसि जनि हृदयँ डेराहू। लूक न असनि केतु नहिं राहू।।<br>राहू॥ए किरीट दसकंधर केरे। आवत बालितनय के प्रेरे।।<br>प्रेरे॥दो0-तरकि पवनसुत कर गहे आनि धरे प्रभु पास।<br>कौतुक देखहिं भालु कपि दिनकर सरिस प्रकास।।32प्रकास॥32(क)।।<br>उहाँ सकोपि दसानन सब सन कहत रिसाइ।<br>धरहु कपिहि धरि मारहु सुनि अंगद मुसुकाइ।।32मुसुकाइ॥32(ख)।।<br><br>एहि बिधि बेगि सूभट सब धावहु। खाहु भालु कपि जहँ जहँ पावहु।।<br>पावहु॥मर्कटहीन करहु महि जाई। जिअत धरहु तापस द्वौ भाई।।<br>भाई॥पुनि सकोप बोलेउ जुबराजा। गाल बजावत तोहि न लाजा।।<br>लाजा॥मरु गर काटि निलज कुलघाती। बल बिलोकि बिहरति नहिं छाती।।<br>छाती॥रे त्रिय चोर कुमारग गामी। खल मल रासि मंदमति कामी।।<br>कामी॥सन्यपात जल्पसि दुर्बादा। भएसि कालबस खल मनुजादा।।<br>मनुजादा॥याको फलु पावहिगो आगें। बानर भालु चपेटन्हि लागें।।<br>लागें॥रामु मनुज बोलत असि बानी। गिरहिं न तव रसना अभिमानी।।<br>अभिमानी॥गिरिहहिं रसना संसय नाहीं। सिरन्हि समेत समर महि माहीं।।<br>माहीं॥सो0-सो नर क्यों दसकंध बालि बध्यो जेहिं एक सर।<br>बीसहुँ लोचन अंध धिग तव जन्म कुजाति जड़।।33जड़॥33(क)।।<br>तब सोनित की प्यास तृषित राम सायक निकर।<br>तजउँ तोहि तेहि त्रास कटु जल्पक निसिचर अधम।।33अधम॥33(ख)।।<br><br>मै तव दसन तोरिबे लायक। आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक।।<br>रघुनायक॥असि रिस होति दसउ मुख तोरौं। लंका गहि समुद्र महँ बोरौं।।<br>बोरौं॥गूलरि फल समान तव लंका। बसहु मध्य तुम्ह जंतु असंका।।<br>असंका॥मैं बानर फल खात न बारा। आयसु दीन्ह न राम उदारा।।<br>उदारा॥जुगति सुनत रावन मुसुकाई। मूढ़ सिखिहि कहँ बहुत झुठाई।।<br>झुठाई॥बालि न कबहुँ गाल अस मारा। मिलि तपसिन्ह तैं भएसि लबारा।।<br>लबारा॥साँचेहुँ मैं लबार भुज बीहा। जौं न उपारिउँ तव दस जीहा।।<br>जीहा॥समुझि राम प्रताप कपि कोपा। सभा माझ पन करि पद रोपा।।<br>रोपा॥जौं मम चरन सकसि सठ टारी। फिरहिं रामु सीता मैं हारी।।<br>हारी॥सुनहु सुभट सब कह दससीसा। पद गहि धरनि पछारहु कीसा।।<br>कीसा॥इंद्रजीत आदिक बलवाना। हरषि उठे जहँ तहँ भट नाना।।<br>नाना॥झपटहिं करि बल बिपुल उपाई। पद न टरइ बैठहिं सिरु नाई।।<br>नाई॥पुनि उठि झपटहीं सुर आराती। टरइ न कीस चरन एहि भाँती।।<br>भाँती॥पुरुष कुजोगी जिमि उरगारी। मोह बिटप नहिं सकहिं उपारी।।<br>उपारी॥दो0-कोटिन्ह मेघनाद सम सुभट उठे हरषाइ।<br>झपटहिं टरै न कपि चरन पुनि बैठहिं सिर नाइ।।34नाइ॥34(क)।।<br>भूमि न छाँडत कपि चरन देखत रिपु मद भाग।।<br>भाग॥कोटि बिघ्न ते संत कर मन जिमि नीति न त्याग।।34त्याग॥34(ख)।।<br><br>कपि बल देखि सकल हियँ हारे। उठा आपु कपि कें परचारे।।<br>परचारे॥गहत चरन कह बालिकुमारा। मम पद गहें न तोर उबारा।।<br>उबारा॥गहसि न राम चरन सठ जाई। सुनत फिरा मन अति सकुचाई।।<br>सकुचाई॥भयउ तेजहत श्री सब गई। मध्य दिवस जिमि ससि सोहई।।<br>सोहई॥सिंघासन बैठेउ सिर नाई। मानहुँ संपति सकल गँवाई।।<br>गँवाई॥जगदातमा प्रानपति रामा। तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा।।<br>बिश्रामा॥उमा राम की भृकुटि बिलासा। होइ बिस्व पुनि पावइ नासा।।<br>नासा॥तृन ते कुलिस कुलिस तृन करई। तासु दूत पन कहु किमि टरई।।<br>टरई॥पुनि कपि कही नीति बिधि नाना। मान न ताहि कालु निअराना।।<br>निअराना॥रिपु मद मथि प्रभु सुजसु सुनायो। यह कहि चल्यो बालि नृप जायो।।<br>जायो॥हतौं न खेत खेलाइ खेलाई। तोहि अबहिं का करौं बड़ाई।।<br>बड़ाई॥प्रथमहिं तासु तनय कपि मारा। सो सुनि रावन भयउ दुखारा।।<br>दुखारा॥जातुधान अंगद पन देखी। भय ब्याकुल सब भए बिसेषी।।<br>बिसेषी॥दो0-रिपु बल धरषि हरषि कपि बालितनय बल पुंज।<br>पुलक सरीर नयन जल गहे राम पद कंज।।35कंज॥35(क)।।<br>साँझ जानि दसकंधर भवन गयउ बिलखाइ।<br>मंदोदरी रावनहि बहुरि कहा समुझाइ।।समुझाइ॥35(ख)।।<br><br>कंत समुझि मन तजहु कुमतिही। सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही।।<br>रघुपतिही॥रामानुज लघु रेख खचाई। सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई।।<br>मनुसाई॥पिय तुम्ह ताहि जितब संग्रामा। जाके दूत केर यह कामा।।<br>कामा॥कौतुक सिंधु नाघी तव लंका। आयउ कपि केहरी असंका।।<br>असंका॥रखवारे हति बिपिन उजारा। देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा।।<br>मारा॥जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा। कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा।।<br>तुम्हारा॥अब पति मृषा गाल जनि मारहु। मोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु।।<br>बिचारहु॥पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु। अग जग नाथ अतुल बल जानहु।।<br>जानहु॥बान प्रताप जान मारीचा। तासु कहा नहिं मानेहि नीचा।।<br>नीचा॥जनक सभाँ अगनित भूपाला। रहे तुम्हउ बल अतुल बिसाला।।<br>बिसाला॥भंजि धनुष जानकी बिआही। तब संग्राम जितेहु किन ताही।।<br>ताही॥सुरपति सुत जानइ बल थोरा। राखा जिअत आँखि गहि फोरा।।<br>फोरा॥सूपनखा कै गति तुम्ह देखी। तदपि हृदयँ नहिं लाज बिषेषी।।<br>बिषेषी॥दो0-बधि बिराध खर दूषनहि लीँलाँ हत्यो कबंध।<br>बालि एक सर मारयो तेहि जानहु दसकंध।।36।।<br>दसकंध॥36॥<br>जेहिं जलनाथ बँधायउ हेला। उतरे प्रभु दल सहित सुबेला।।<br>सुबेला॥कारुनीक दिनकर कुल केतू। दूत पठायउ तव हित हेतू।।<br>हेतू॥सभा माझ जेहिं तव बल मथा। करि बरूथ महुँ मृगपति जथा।।<br>जथा॥अंगद हनुमत अनुचर जाके। रन बाँकुरे बीर अति बाँके।।<br>बाँके॥तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहहू। मुधा मान ममता मद बहहू।।<br>बहहू॥अहह कंत कृत राम बिरोधा। काल बिबस मन उपज न बोधा।।<br>बोधा॥काल दंड गहि काहु न मारा। हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा।।<br>बिचारा॥निकट काल जेहि आवत साईं। तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईं।।<br>नाईं॥दो0-दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु।<br>कृपासिंधु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु।।37।।<br>लेहु॥37॥<br>नारि बचन सुनि बिसिख समाना। सभाँ गयउ उठि होत बिहाना।।<br>बिहाना॥बैठ जाइ सिंघासन फूली। अति अभिमान त्रास सब भूली।।<br>भूली॥इहाँ राम अंगदहि बोलावा। आइ चरन पंकज सिरु नावा।।<br>नावा॥अति आदर सपीप बैठारी। बोले बिहँसि कृपाल खरारी।।<br>खरारी॥बालितनय कौतुक अति मोही। तात सत्य कहु पूछउँ तोही।।।<br>तोही॥।रावनु जातुधान कुल टीका। भुज बल अतुल जासु जग लीका।।<br>लीका॥तासु मुकुट तुम्ह चारि चलाए। कहहु तात कवनी बिधि पाए।।<br>पाए॥सुनु सर्बग्य प्रनत सुखकारी। मुकुट न होहिं भूप गुन चारी।।<br>चारी॥साम दान अरु दंड बिभेदा। नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा।।<br>बेदा॥नीति धर्म के चरन सुहाए। अस जियँ जानि नाथ पहिं आए।।<br>आए॥दो0-धर्महीन प्रभु पद बिमुख काल बिबस दससीस।<br>तेहि परिहरि गुन आए सुनहु कोसलाधीस।।38कोसलाधीस॥38(((क)।।<br>परम चतुरता श्रवन सुनि बिहँसे रामु उदार।<br>समाचार पुनि सब कहे गढ़ के बालिकुमार।।38बालिकुमार॥38(ख)।।<br><br>रिपु के समाचार जब पाए। राम सचिव सब निकट बोलाए।।<br>बोलाए॥लंका बाँके चारि दुआरा। केहि बिधि लागिअ करहु बिचारा।।<br>बिचारा॥तब कपीस रिच्छेस बिभीषन। सुमिरि हृदयँ दिनकर कुल भूषन।।<br>भूषन॥करि बिचार तिन्ह मंत्र दृढ़ावा। चारि अनी कपि कटकु बनावा।।<br>बनावा॥जथाजोग सेनापति कीन्हे। जूथप सकल बोलि तब लीन्हे।।<br>लीन्हे॥प्रभु प्रताप कहि सब समुझाए। सुनि कपि सिंघनाद करि धाए।।<br>धाए॥हरषित राम चरन सिर नावहिं। गहि गिरि सिखर बीर सब धावहिं।।<br>धावहिं॥गर्जहिं तर्जहिं भालु कपीसा। जय रघुबीर कोसलाधीसा।।<br>कोसलाधीसा॥जानत परम दुर्ग अति लंका। प्रभु प्रताप कपि चले असंका।।<br>असंका॥घटाटोप करि चहुँ दिसि घेरी। मुखहिं निसान बजावहीं भेरी।।<br>भेरी॥दो0-जयति राम जय लछिमन जय कपीस सुग्रीव।<br>गर्जहिं सिंघनाद कपि भालु महा बल सींव।।39।।<br>सींव॥39॥<br>लंकाँ भयउ कोलाहल भारी। सुना दसानन अति अहँकारी।।<br>अहँकारी॥देखहु बनरन्ह केरि ढिठाई। बिहँसि निसाचर सेन बोलाई।।<br>बोलाई॥आए कीस काल के प्रेरे। छुधावंत सब निसिचर मेरे।।<br>मेरे॥अस कहि अट्टहास सठ कीन्हा। गृह बैठे अहार बिधि दीन्हा।।<br>दीन्हा॥सुभट सकल चारिहुँ दिसि जाहू। धरि धरि भालु कीस सब खाहू।।<br>खाहू॥उमा रावनहि अस अभिमाना। जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना।।<br>उताना॥चले निसाचर आयसु मागी। गहि कर भिंडिपाल बर साँगी।।<br>साँगी॥तोमर मुग्दर परसु प्रचंडा। सुल कृपान परिघ गिरिखंडा।।<br>गिरिखंडा॥जिमि अरुनोपल निकर निहारी। धावहिं सठ खग मांस अहारी।।<br>अहारी॥चोंच भंग दुख तिन्हहि न सूझा। तिमि धाए मनुजाद अबूझा।।<br>अबूझा॥दो0-नानायुध सर चाप धर जातुधान बल बीर।<br>कोट कँगूरन्हि चढ़ि गए कोटि कोटि रनधीर।।40।।<br>रनधीर॥40॥<br>कोट कँगूरन्हि सोहहिं कैसे। मेरु के सृंगनि जनु घन बैसे।।<br>बैसे॥बाजहिं ढोल निसान जुझाऊ। सुनि धुनि होइ भटन्हि मन चाऊ।।<br>चाऊ॥बाजहिं भेरि नफीरि अपारा। सुनि कादर उर जाहिं दरारा।।<br>दरारा॥देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्टा। अति बिसाल तनु भालु सुभट्टा।।<br>सुभट्टा॥धावहिं गनहिं न अवघट घाटा। पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा।।<br>बाटा॥कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं। दसन ओठ काटहिं अति तर्जहिं।।<br>तर्जहिं॥उत रावन इत राम दोहाई। जयति जयति जय परी लराई।।<br>लराई॥निसिचर सिखर समूह ढहावहिं। कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिं।।<br>चलावहिं॥दो0-धरि कुधर खंड प्रचंड कर्कट भालु गढ़ पर डारहीं।<br>झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि पचारहीं।।<br>पचारहीं॥अति तरल तरुन प्रताप तरपहिं तमकि गढ़ चढ़ि चढ़ि गए।<br>कपि भालु चढ़ि मंदिरन्ह जहँ तहँ राम जसु गावत भए।।<br>भए॥दो0-एकु एकु निसिचर गहि पुनि कपि चले पराइ।<br>ऊपर आपु हेठ भट गिरहिं धरनि पर आइ।।41।।<br>आइ॥41॥<br>राम प्रताप प्रबल कपिजूथा। मर्दहिं निसिचर सुभट बरूथा।।<br>बरूथा॥चढ़े दुर्ग पुनि जहँ तहँ बानर। जय रघुबीर प्रताप दिवाकर।।<br>दिवाकर॥चले निसाचर निकर पराई। प्रबल पवन जिमि घन समुदाई।।<br>समुदाई॥हाहाकार भयउ पुर भारी। रोवहिं बालक आतुर नारी।।<br>नारी॥सब मिलि देहिं रावनहि गारी। राज करत एहिं मृत्यु हँकारी।।<br>हँकारी॥निज दल बिचल सुनी तेहिं काना। फेरि सुभट लंकेस रिसाना।।<br>रिसाना॥जो रन बिमुख सुना मैं काना। सो मैं हतब कराल कृपाना।।<br>कृपाना॥सर्बसु खाइ भोग करि नाना। समर भूमि भए बल्लभ प्राना।।<br>प्राना॥उग्र बचन सुनि सकल डेराने। चले क्रोध करि सुभट लजाने।।<br>लजाने॥सन्मुख मरन बीर कै सोभा। तब तिन्ह तजा प्रान कर लोभा।।<br>लोभा॥दो0-बहु आयुध धर सुभट सब भिरहिं पचारि पचारि।<br>ब्याकुल किए भालु कपि परिघ त्रिसूलन्हि मारी।।42।।<br>मारी॥42॥<br>भय आतुर कपि भागन लागे। जद्यपि उमा जीतिहहिं आगे।।<br>आगे॥कोउ कह कहँ अंगद हनुमंता। कहँ नल नील दुबिद बलवंता।।<br>बलवंता॥निज दल बिकल सुना हनुमाना। पच्छिम द्वार रहा बलवाना।।<br>बलवाना॥मेघनाद तहँ करइ लराई। टूट न द्वार परम कठिनाई।।<br>कठिनाई॥पवनतनय मन भा अति क्रोधा। गर्जेउ प्रबल काल सम जोधा।।<br>जोधा॥कूदि लंक गढ़ ऊपर आवा। गहि गिरि मेघनाद कहुँ धावा।।<br>धावा॥भंजेउ रथ सारथी निपाता। ताहि हृदय महुँ मारेसि लाता।।<br>लाता॥दुसरें सूत बिकल तेहि जाना। स्यंदन घालि तुरत गृह आना।।<br>आना॥दो0-अंगद सुना पवनसुत गढ़ पर गयउ अकेल।<br>रन बाँकुरा बालिसुत तरकि चढ़ेउ कपि खेल।।43।।<br>खेल॥43॥<br>जुद्ध बिरुद्ध क्रुद्ध द्वौ बंदर। राम प्रताप सुमिरि उर अंतर।।<br>अंतर॥रावन भवन चढ़े द्वौ धाई। करहि कोसलाधीस दोहाई।।<br>दोहाई॥कलस सहित गहि भवनु ढहावा। देखि निसाचरपति भय पावा।।<br>पावा॥नारि बृंद कर पीटहिं छाती। अब दुइ कपि आए उतपाती।।<br>उतपाती॥कपिलीला करि तिन्हहि डेरावहिं। रामचंद्र कर सुजसु सुनावहिं।।<br>सुनावहिं॥पुनि कर गहि कंचन के खंभा। कहेन्हि करिअ उतपात अरंभा।।<br>अरंभा॥गर्जि परे रिपु कटक मझारी। लागे मर्दै भुज बल भारी।।<br>भारी॥काहुहि लात चपेटन्हि केहू। भजहु न रामहि सो फल लेहू।।<br>लेहू॥दो0-एक एक सों मर्दहिं तोरि चलावहिं मुंड।<br>रावन आगें परहिं ते जनु फूटहिं दधि कुंड।।44।।<br>कुंड॥44॥<br>महा महा मुखिआ जे पावहिं। ते पद गहि प्रभु पास चलावहिं।।<br>चलावहिं॥कहइ बिभीषनु तिन्ह के नामा। देहिं राम तिन्हहू निज धामा।।<br>धामा॥खल मनुजाद द्विजामिष भोगी। पावहिं गति जो जाचत जोगी।।<br>जोगी॥उमा राम मृदुचित करुनाकर। बयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर।।<br>निसिचर॥देहिं परम गति सो जियँ जानी। अस कृपाल को कहहु भवानी।।<br>भवानी॥अस प्रभु सुनि न भजहिं भ्रम त्यागी। नर मतिमंद ते परम अभागी।।<br>अभागी॥अंगद अरु हनुमंत प्रबेसा। कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा।।<br>अवधेसा॥लंकाँ द्वौ कपि सोहहिं कैसें। मथहि सिंधु दुइ मंदर जैसें।।<br>जैसें॥दो0-भुज बल रिपु दल दलमलि देखि दिवस कर अंत।<br>कूदे जुगल बिगत श्रम आए जहँ भगवंत।।45।।<br>भगवंत॥45॥<br>प्रभु पद कमल सीस तिन्ह नाए। देखि सुभट रघुपति मन भाए।।<br>भाए॥राम कृपा करि जुगल निहारे। भए बिगतश्रम परम सुखारे।।<br>सुखारे॥गए जानि अंगद हनुमाना। फिरे भालु मर्कट भट नाना।।<br>नाना॥जातुधान प्रदोष बल पाई। धाए करि दससीस दोहाई।।<br>दोहाई॥निसिचर अनी देखि कपि फिरे। जहँ तहँ कटकटाइ भट भिरे।।<br>भिरे॥द्वौ दल प्रबल पचारि पचारी। लरत सुभट नहिं मानहिं हारी।।<br>हारी॥महाबीर निसिचर सब कारे। नाना बरन बलीमुख भारे।।<br>भारे॥सबल जुगल दल समबल जोधा। कौतुक करत लरत करि क्रोधा।।<br>क्रोधा॥प्राबिट सरद पयोद घनेरे। लरत मनहुँ मारुत के प्रेरे।।<br>प्रेरे॥अनिप अकंपन अरु अतिकाया। बिचलत सेन कीन्हि इन्ह माया।।<br>माया॥भयउ निमिष महँ अति अँधियारा। बृष्टि होइ रुधिरोपल छारा।।<br>छारा॥दो0-देखि निबिड़ तम दसहुँ दिसि कपिदल भयउ खभार।<br>एकहि एक न देखई जहँ तहँ करहिं पुकार।।46।।<br>पुकार॥46॥<br>सकल मरमु रघुनायक जाना। लिए बोलि अंगद हनुमाना।।<br>हनुमाना॥समाचार सब कहि समुझाए। सुनत कोपि कपिकुंजर धाए।।<br>धाए॥पुनि कृपाल हँसि चाप चढ़ावा। पावक सायक सपदि चलावा।।<br>चलावा॥भयउ प्रकास कतहुँ तम नाहीं। ग्यान उदयँ जिमि संसय जाहीं।।<br>जाहीं॥भालु बलीमुख पाइ प्रकासा। धाए हरष बिगत श्रम त्रासा।।<br>त्रासा॥हनूमान अंगद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे।।<br>भाजे॥भागत पट पटकहिं धरि धरनी। करहिं भालु कपि अद्भुत करनी।।<br>करनी॥गहि पद डारहिं सागर माहीं। मकर उरग झष धरि धरि खाहीं।।<br>खाहीं॥दो0-कछु मारे कछु घायल कछु गढ़ चढ़े पराइ।<br>गर्जहिं भालु बलीमुख रिपु दल बल बिचलाइ।।47।।<br>बिचलाइ॥47॥<br>निसा जानि कपि चारिउ अनी। आए जहाँ कोसला धनी।।<br>धनी॥राम कृपा करि चितवा सबही। भए बिगतश्रम बानर तबही।।<br>तबही॥उहाँ दसानन सचिव हँकारे। सब सन कहेसि सुभट जे मारे।।<br>मारे॥आधा कटकु कपिन्ह संघारा। कहहु बेगि का करिअ बिचारा।।<br>बिचारा॥माल्यवंत अति जरठ निसाचर। रावन मातु पिता मंत्री बर।।<br>बर॥बोला बचन नीति अति पावन। सुनहु तात कछु मोर सिखावन।।<br>सिखावन॥जब ते तुम्ह सीता हरि आनी। असगुन होहिं न जाहिं बखानी।।<br>बखानी॥बेद पुरान जासु जसु गायो। राम बिमुख काहुँ न सुख पायो।।<br>पायो॥दो0-हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान।<br>जेहि मारे सोइ अवतरेउ कृपासिंधु भगवान।।48भगवान॥48(क)।।<br>मासपारायण, पचीसवाँ विश्राम<br>कालरूप खल बन दहन गुनागार घनबोध।<br>सिव बिरंचि जेहि सेवहिं तासों कवन बिरोध।।48बिरोध॥48(ख)।।<br><br>परिहरि बयरु देहु बैदेही। भजहु कृपानिधि परम सनेही।।<br>सनेही॥ताके बचन बान सम लागे। करिआ मुह करि जाहि अभागे।।<br>अभागे॥बूढ़ भएसि न त मरतेउँ तोही। अब जनि नयन देखावसि मोही।।<br>मोही॥तेहि अपने मन अस अनुमाना। बध्यो चहत एहि कृपानिधाना।।<br>कृपानिधाना॥सो उठि गयउ कहत दुर्बादा। तब सकोप बोलेउ घननादा।।<br>घननादा॥कौतुक प्रात देखिअहु मोरा। करिहउँ बहुत कहौं का थोरा।।<br>थोरा॥सुनि सुत बचन भरोसा आवा। प्रीति समेत अंक बैठावा।।<br>बैठावा॥करत बिचार भयउ भिनुसारा। लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा।।<br>दुआरा॥कोपि कपिन्ह दुर्घट गढ़ु घेरा। नगर कोलाहलु भयउ घनेरा।।<br>घनेरा॥बिबिधायुध धर निसिचर धाए। गढ़ ते पर्बत सिखर ढहाए।।<br>ढहाए॥छं0-ढाहे महीधर सिखर कोटिन्ह बिबिध बिधि गोला चले।<br>घहरात जिमि पबिपात गर्जत जनु प्रलय के बादले।।<br>बादले॥मर्कट बिकट भट जुटत कटत न लटत तन जर्जर भए।<br>गहि सैल तेहि गढ़ पर चलावहिं जहँ सो तहँ निसिचर हए।।<br>हए॥दो0-मेघनाद सुनि श्रवन अस गढ़ु पुनि छेंका आइ।<br>उतर्यो बीर दुर्ग तें सन्मुख चल्यो बजाइ।।49।।<br>बजाइ॥49॥<br>कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता। धन्वी सकल लोक बिख्याता।।<br>बिख्याता॥कहँ नल नील दुबिद सुग्रीवा। अंगद हनूमंत बल सींवा।।<br>सींवा॥कहाँ बिभीषनु भ्राताद्रोही। आजु सबहि हठि मारउँ ओही।।<br>ओही॥अस कहि कठिन बान संधाने। अतिसय क्रोध श्रवन लगि ताने।।<br>ताने॥सर समुह सो छाड़ै लागा। जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा।।<br>नागा॥जहँ तहँ परत देखिअहिं बानर। सन्मुख होइ न सके तेहि अवसर।।<br>अवसर॥जहँ तहँ भागि चले कपि रीछा। बिसरी सबहि जुद्ध कै ईछा।।<br>ईछा॥सो कपि भालु न रन महँ देखा। कीन्हेसि जेहि न प्रान अवसेषा।।<br>अवसेषा॥दो0-दस दस सर सब मारेसि परे भूमि कपि बीर।<br>सिंहनाद करि गर्जा मेघनाद बल धीर।।50।।<br>धीर॥50॥<br/poem>