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लक्ष्यहीन कहाँ चले / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

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दिशाहीन गगन-तले
लक्ष्यहीन कहाँ चले-
चलते रथ-चक्रों को मोड़ो हे सारथी।

चाहे जिन दामों की मँहगी यह ऊँचाई,
तिल भर ठहराव नहीं, पग-पग फिसलन, काई;
उतरो मैदानों में,
खेतों-खलिहानों में,
आकाशी स्वप्न-भूमि छोड़ो परमार्थी।

यह जो है अन्ध-गुफा अपनी ही रची हुई,
देखो कुछ ज्योति अभी इसमकें ही बची हुई;
मानो, कहना मानो,
किरण-बाण सन्धानों,
तम का दुर्भेद्य दुर्ग तोड़ो पुरुषार्थी।

तन कर दृढ़ तरुवर से, आँधियाँ लपेटो रे!
पथ के व्यवधानों को, वस्त्र-सा समेटो रे;
क्रुद्ध वीर्य गाने दो
भैरवी जगाने दो
वीणा-तज, ले त्रिशूल दौड़ो हे भारती।