भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लगाव कहाँ हे / मुनेश्वर ‘शमन’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कहय-सुनय भर के अब रिस्ता-
पहिले नियर लगाव कहाँ हे।
बोली-बानी तक ही सिमटल –
दिल में पइसल भाव कहाँ हे ?

दादा- दादी माय-बाप आउ
बहिन-भाय सब बनलन फालतू।
अप्पन औरत बेटा-बेटी
खास एहे रह गेलन पालतू।
जनकपुरी से तनिको जादे-
नाता के फैलाव कहाँ हे ?

पसरल लोभ-लाभ के महिमा
घेरने डेगे-डेग मतलबी।
स्वारथ के पूरा होबइते
एक-एक चट बनय अजनबी।
जे नाता पर मरऽ –मिटऽ हल
ओकरो तेवर-ताव कहाँ हे ?

असर समय के अखनी ऐसन –
सब कुछ पर बस धन हे भारी।
दौलत के लालची आजकल,
रोज कर रहल मारा-मारी।
बहुत निकट के रिस्ता में भी।
अब आपसी बनाव कहाँ हे।

रिस्ता तो रस्ता के संबल
घोरय जिंगी में मिठास ई।
जीवन के उदास मउसम में
जगबय पग-पग नयकी आस ई ।
नेह बिना बेरंग उमिरया
बिना राग-रस छाँव कहाँ हे।