बनकर अभीत हुँकर उठे
लघु प्राण दीप ललकार उठे
सूरज ने शस्त्र झुकाए हैं
सारे नक्षत्र मुरझाए हैं
निष्प्रभ शशि हुआ निराश परम
हर ओर अँधेरे साए हैं
बन ज्योतिपुंज साकार उठे
आतंकमढ़ी हों सुबह शाम
बस रावण गरजे अष्ट याम
ऋषि–प्रज्ञा भी आहार बने
पर जीतेंगे हर बार राम
जय जय जग मुग्ध पुकार उठे
तम के पर्वत को गलने दो
इस ज्योतिपर्व को चलने दो
विश्वास रखो हारेगा तम
साँसों का दीपक जलने दो
बस स्नेह सजल साकार उठे