भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लचर नाराज़ी / महेश उपाध्याय

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:07, 30 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश उपाध्याय |अनुवादक= |संग्रह=आ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सीढ़ियों से उतरकर काग़ज़
                 पसर जाते हैं
उछल कर नारे हवा में
                ठहर जाते हैं
काम कुछ होता नहीं है कहीं

मन्त्र सब मन्त्रीकरण ने
कवच कर डाले
कौन डाले बेवजह फिर
पाँव में छाले

ढूँढ़ता फन्दा
किसी निर्दोष की गर्दन
पाहुना सोता नहीं है कहीं

अधबिकी बैसाखियों की
यह हवाबाज़ी
कुछ नशीली कुर्सियों की
लचर नाराज़ी

पसलियों को तोड़
करती बन्द दरवाज़े
आदमी रोता नहीं है कहीं