भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लड़की / प्रताप सिंह

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:33, 10 नवम्बर 2008 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं सोचता था- लड़की जिस्म की कच्ची

धूप में

नहाकर बड़ी होगी

मैं सोचता था- लड़की,

मुंडेर पर झुकी होगी तो क्या सोचती

होगी...

मै सोचता था- लड़की

एक दिन सिन्दूरी सुबह की तरह होगी।


लड़की और लड़कियों से बतियाकर

बड़ी होती रही

लड़कियाँ... और-और दिन लड़की भी

बिलंगनी पर धोतियाँ सुखाती बड़ी होती

रहीं।


लड़की छोटे भाई-बहन को-

नहलाती-खिलाती-पढ़ाती बड़ी होती रही।

पता लगा लड़की फिर-

लाल चूड़ियों की दुकान तक आती-जाती

बड़ी हुई


फिर लड़की बड़ी हुई तो...

आधी खुली खिड़की की ओट में-

अचानक आँख मिलाती हुई बड़ी हुई।


मैं सोचता था- लड़की जब खड़ी होगी

तो छत पर टहलती-बहलती हुई

दिखाई देगी

और अपने गीले बालों को

देर तक हवा देगी।


मैं सोचता था लड़की-

और बैंजनी-हँसी में आख़िर कुछ रहेगी।


और यह मैं क्या सोचता था

कि लड़की जब बड़ी होगी

तो और किसी के लिए बड़ी होगी।


इस तरह लड़की को

रोज़-रोज़ बड़ी होते देखा

तो भी ये जान नहीं पाया

आख़िरी बार वह कब बड़ी हुई

देख नहीं पाया-

फिर वह कब...

छत पर अकेली खड़ी हुई?


यह मैं क्या सोचता था...

लड़की पराए घर जाएगी

तो वहाँ कहाँ खड़ी होगी?

यह मैं क्या सोचता था...

लड़की अपनी छत पर खड़ी होगी

तो आख़िरी बार खड़ी होगी


मैं सोचता था- लड़की

एक दिन सिन्दूरी सुबह की तरह होगी।

मैं सोचता था- लड़की

जिस्म की कच्ची धूप में नहाकर

बड़ी होगी!