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लड़ाई / लीलाधर जगूड़ी

दुनिया की सबसे बड़ी लड़ाई आज भी एक बच्चा लड़ता है

पेट के बल, कोहनियों के बल और घुटनों के बल

लेकिन जो लोग उस लड़ाई की मार्फत बड़े हो चुके

मैदान के बीचों-बीच उनसे पूछता हूं

कि घरों को भी खंदकों में क्यों बदल रहे हो?

जानते हो यह उस बच्चे के खेल का मैदान है

जो आज भी दुनिया की सबसे बड़ी लड़ाई लड़ता है

ये सब सोचने की जिन्हें फुर्सत नहीं

उनसे मेरा कहना है कि जिन्हें मरने की भी फुर्सत नहीं थी

उन्हें भी मैंने मरा हुआ देखा है

पर उस तरह नहीं जिस तरह एक बच्चा मरता है

जिसकी न कहीं कोई कब्र होती है न कोई चिता जलती है

बच्चों के लिए गङ्ढे खोदे जाते हैं

ठीक जैसे हम पेड़ लगाने के लिए खोदते हैं

उन्हें भी मैं जानता हूँ जो बूट पहनते हैं

पर एक बार भी मरे हुए जानवरों को याद नहीं करते

जबकि बंदूक को वे एक बार भी नहीं भूल पाते

उनमें से कुछ तो दुनिया के सायरनों के मालिक हैं

जो तीन-चार शहरों को नहीं

बल्कि पाँच-छह मुल्कों को हर साल खंदकों में उतार देते हैं

उनका एलान है कि घर एक आदिम खंदक है

और जमीन एक बहुत बड़ी कब्र का नाम है

इसलिए लोगो!

मेरी कविता हर उस इनसान का बयान है

जो बंदूकों के गोदाम से अनाज की ख्वाहिश रखता है

मेरी कविता हर उस आँख की दरख्वास्त है

जिसमें आँसू हैं

ये जो हरी घास के टीले हैं

ये जो दरवाजों से सटे हुए हवा के झोंके हैं

ये अब थोड़े दिनों की दास्तान हैं

यहाँ कोई बच्चा

चाहे वह पूरा आदमी ही क्यों न बन जाए

अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकेगा

पेट के बल नहीं चल सकेगा

कोहनियों और घुटनों के बल भी नहीं

क्योंकि पहली लड़ाईवाले बच्चे

दुनिया की सबसे आखिरी लड़ाई लड़ने वाले हैं