Last modified on 4 नवम्बर 2019, at 17:30

लफ़्ज़ एहसास—से छाने लगे, ये तो हद है / दुष्यंत कुमार

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:30, 4 नवम्बर 2019 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

लफ़्ज़ एहसास-से छाने लगे, ये तो हद है
लफ़्ज़ माने भी छुपाने लगे, ये तो हद है

आप दीवार गिराने के लिए आए थे
आप दीवार उठाने लगे, ये तो हद है

ख़ामुशी शोर से सुनते थे कि घबराती है
ख़ामुशी शोर मचाने लगे, ये तो हद है

आदमी होंठ चबाए तो समझ आता है
आदमी छाल चबाने लगे, ये तो हद है

जिस्म पहरावों में छुप जाते थे, पहरावों में
जिस्म नंगे नज़र आने लगे, ये तो हद है

लोग तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के सलीक़े सीखें
लोग रोते हुए गाने लगे, ये तो हद है