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"लफ़्जों की असलियत से क्यों दूर भागते हो / हरिराज सिंह 'नूर'" के अवतरणों में अंतर

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तुम भी तो साथ इनके जज़्बों के वास्ते हो।
  
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अब तक यकीं किया है, दानिशवरी से तुमने।
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मेरी वफ़ा को अब क्यों पैमानो! नापते हो?
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शक की सुई न घूमे, रिश्तों पे अब हमारे,
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रिश्तों की डोर लम्हो! बेवज्ह काटते हो।
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कैसे बढेगा बोलो नाज़ुक बदन ये पौधा?
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जब इस की टहनियों को दिन-रात छाँटते हो।
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ज़ाहिर करोगे कैसे तुम अपनी पाक-साफ़ी,
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अपनों को रेवड़ी जब तुम ‘नूर’ बाँटते हो।
 
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22:32, 24 अप्रैल 2020 के समय का अवतरण

लफ़्जों की असलियत से क्यों दूर भागते हो।
तुम भी तो साथ इनके जज़्बों के वास्ते हो।

अब तक यकीं किया है, दानिशवरी से तुमने।
मेरी वफ़ा को अब क्यों पैमानो! नापते हो?

शक की सुई न घूमे, रिश्तों पे अब हमारे,
रिश्तों की डोर लम्हो! बेवज्ह काटते हो।

कैसे बढेगा बोलो नाज़ुक बदन ये पौधा?
जब इस की टहनियों को दिन-रात छाँटते हो।

ज़ाहिर करोगे कैसे तुम अपनी पाक-साफ़ी,
अपनों को रेवड़ी जब तुम ‘नूर’ बाँटते हो।