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लब ओ रुख़्सार की क़िस्मत से दूरी / 'असअद' भोपाली

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लब ओ रुख़्सार की क़िस्मत से दूरी
रहेगी ज़िंदगी कब तक अधूरी

बहुत तड़पा रहे हैं दो दिलों को
कई नाज़ुक तक़ाज़े ला-शुऊरी

कई रातों से है आग़ोश सूना
कई रातों की नींदें हैं अधूरी

ख़ुदा समझे जुनून-ए-जुस्तुजू को
सर-ए-मंज़िल भी है मंज़िल से दूरी

अजब अंदाज़ के शाम ओ सहर हैं
कोई तस्वीर हो जैसे अधूरी

ख़ुदा को भूल ही जाए ज़माना
हर इक जो आरज़ू हो जाए पूरी