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लम्बे सफ़र की हार / प्रांजल धर

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बहुत डर जाता है मन
बढ़ा रक्तचाप लेकर काँपने लगता हाथ,
मृतप्राय दिमाग़ और
थरथराती हुई उभरी नसें सीने की,
उजियारी रात में झील की सतह पर
हिल रहे चाँद की धुँधली तस्वीर-सी;
विदा हो जाती सारी उमंग
और निर्वात हो जाता है
चिन्तन की कोठरी में। बुरी तरह।
इन्द्रिय सम्वेदन सुन्न
गड़बड़ी बहुत बड़ी लेकिन
हड़बड़ी ज़रा भी नहीं;
दिखते सभी फूल एक-से
भावनात्मक वर्णान्धता के चलते
और फिर मिट जाता अन्तर
काँटों और फूलों का भी;
बराबर तोलता मन हिटलर और गाँधी को,
झोंके और आँधी को...

जब देखता स्वप्न में कि बड़ा नुकसान उठाया
पूरी मानवता ने हड़प्पा के स्नानागार से
आज के स्विमिंग पूल तक के बहुत लम्बे सफ़र में
हर मोर्चे पर हारा इन्सान
मन में, घर में, जीवन-समर में।
जागने पर पाता कि ख़ुद हूँ पसीने-पसीने
और चीथड़े हो चुकी है मच्छरदानी !