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लम्हा-ए-गनीमत / साहिर लुधियानवी

मुस्करा ऐ ज़मीने-तीरा-ओ-तार

सर उठा, ऐ दबी हुई मखलूक


देख वो मगरिब्री उफ़ुक के करीब

आंधियां पेचो-ताब खाने लगीं

और पुराने कमार-खाने मे

कुहना शातिर बहम उलझने लगे


कोई तेरी तरफ़ नहीं निगरां

ये गिराबार सर्द ज़ंज़ीरें

जंग-खुर्द हैं, आहनी ही सही

आज मौका है, टूट सकती है


फ़ुर्सते-यक-नफ़स गनीमत जान

सर उठा ऐ दबी हुई मखलूक