Last modified on 7 मई 2014, at 12:33

लश्कर के ज़ुल्म / कैफ़ी आज़मी

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:33, 7 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कैफ़ी आज़मी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

 दस्तूर क्या ये शहरे-सितमगर<ref>प्रिय का शहर</ref> के हो गए
जो सर उठा के निकले थे बे-सर के हो गए

ये शहर तो है आप का, आवाज़ किस की थी
देखा जो मुड़ के हमने तो पत्थर के हो गए

जब सर ढका तो पाँव खुले फिर ये सर खुला
टुकड़े इसी में पुरखों की चादर के हो गए

दिल में कोई सनम ही बचा, न ख़ुदा रहा
इस शहर पे ज़ुल्म भी लश्कर के हो गए

हम पे बहुत हँसे थे फ़रिश्ते सो देख लें
हम भी क़रीब गुम्बदे-बेदर<ref>आसमान</ref> के हो गए

शब्दार्थ
<references/>