भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लहरों के थपेड़ों से / बाल गंगाधर 'बागी'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:36, 23 अप्रैल 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बाल गंगाधर 'बागी' |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्या भूख मेरे जीवन की, धारा का नाम है
प्रवाहों में इससे क्या? मेरी पहचान है
सड़ते रहे मांस, बिखरे हुए खेत में
साया में गिद्धों की, किसका विराम है?

यातना अपमान से, भूख बनी आग थी
दलित बस्ती की यह, पहली पहचान थी
भिनभिनाती मक्यिां, ज़हरीली धूप में
दलितों व गिद्धों में, कैसी खींचा तान थी

सवर्णों की नाक में, वास कभी जाती नहीं
क्या दक्षिण की हवा उनके, घर कभी जाती नहीं
दलितों को सवर्णों ने, गांव से निकाल दिया
दुनिया बदली जब, उनका सब बालात लिया

हम जानवर बनाये गये, तुम्हारे अजाब1 से
हम बौद्ध से बुद्धिहीन हुए, तुम्हारे ख्याल से
खेत व खलियान साथ, घर भी लिया छीन
हुए बेबस लाचार दलित, ब्राह्मणी चाल से

राजाओं ज़मीनदारों से, तुम आश्रय लिये
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य का दास बना दिये
कर्ज के सागर से न, हम डूब के निकले
सियासी लहरों के थपेड़ों से मिआ दिए

जंगल ज़मीन जीवन का, सदा नीर पी गये
अपनी विरासत पे हम, नीरस ही रह गये
अब जंगल की छांव में, कोयल की कूं कहाँ?
यूं सारे ही संसाधन पे, वर्चस्व हैं किए

अब मेरा लहू बगावत करता है
उनके जातिय व्यवस्था का, सरताज हिलता है
जब उनके दमन से कोई चिराग़ बुझता है
‘बाग़ी’ दलित समाज का, मशाल जलता है।