http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%82_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%A2%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A5%80_%E0%A4%AA%E0%A4%B0_%E0%A4%AC%E0%A4%9C%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%A4%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A4%BE_%E0%A4%87%E0%A4%95%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE_/_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%97%E0%A5%8C%E0%A4%A4%E0%A4%AE&feed=atom&action=historyलाशों की ढेरी पर बजता तेरा इकतारा / राजेन्द्र गौतम - अवतरण इतिहास2024-03-29T12:00:22Zविकि पर उपलब्ध इस पृष्ठ का अवतरण इतिहासMediaWiki 1.24.1http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%82_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%A2%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A5%80_%E0%A4%AA%E0%A4%B0_%E0%A4%AC%E0%A4%9C%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%A4%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A4%BE_%E0%A4%87%E0%A4%95%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE_/_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%97%E0%A5%8C%E0%A4%A4%E0%A4%AE&diff=175992&oldid=prevअनिल जनविजय: '{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेन्द्र गौतम |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पन्ना बनाया2014-05-29T07:45:24Z<p>'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेन्द्र गौतम |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
<p><b>नया पृष्ठ</b></p><div>{{KKGlobal}}<br />
{{KKRachna<br />
|रचनाकार=राजेन्द्र गौतम<br />
|अनुवादक=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{KKCatNavgeet}}<br />
<poem><br />
भव्य किले की प्राचीरों का<br />
दफ़न करो इतिहास पुराना<br />
आज वक़्त से पूछो <br />
केवल ईंट-ईंट का मोल ।<br />
<br />
घर का क्या है<br />
यदि ढहता है बेशक ढह जाए<br />
कुछ तो नाम गिराने से भी होता ही होगा<br />
रचना का दायित्व कहाँ तक ढोओगे आख़िर<br />
ग़लती से पा बैठे हो यदि आदम का चोगा<br />
दिखते हैं शैतान फ़रिश्ते<br />
देवदूत से धुले-धुले <br />
तब क्या ढकनी मुश्किल है <br />
इस फटे ढोल की पोल ।<br />
<br />
हिंसक होती हैं बन्दूकें या गोली-चाकू<br />
वे चल जाती हैं, चल जाएँ, <br />
क्या दोष तुम्हारा <br />
तू निर्लिप्त कर्म-योगी है, <br />
फल से दूर रहा<br />
लाशों की ढेरी पर बजता <br />
तेरा इकतारा<br />
यों ही बस बघनखे पहन कर<br />
स्वाद जीभ का बदला करता<br />
मिल जाता है कभी तुम्हें जब<br />
किसी भेड़ का खोल ।<br />
</poem></div>अनिल जनविजय