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लाशों की ढेरी पर बजता तेरा इकतारा / राजेन्द्र गौतम

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भव्य किले की प्राचीरों का
दफ़न करो इतिहास पुराना
आज वक़्त से पूछो
                केवल ईंट-ईंट का मोल ।

घर का क्या है
यदि ढहता है बेशक ढह जाए
कुछ तो नाम गिराने से भी होता ही होगा
रचना का दायित्व कहाँ तक ढोओगे आख़िर
ग़लती से पा बैठे हो यदि आदम का चोगा
दिखते हैं शैतान फ़रिश्ते
देवदूत से धुले-धुले
तब क्या ढकनी मुश्किल है
               इस फटे ढोल की पोल ।

हिंसक होती हैं बन्दूकें या गोली-चाकू
वे चल जाती हैं, चल जाएँ,
क्या दोष तुम्हारा
तू निर्लिप्त कर्म-योगी है,
फल से दूर रहा
लाशों की ढेरी पर बजता
तेरा इकतारा
यों ही बस बघनखे पहन कर
स्वाद जीभ का बदला करता
मिल जाता है कभी तुम्हें जब
                       किसी भेड़ का खोल ।