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लिपि व भाषा / प्रतिमा त्रिपाठी

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आँखों की उदास भाषा मे उसने कहा- प्रेम है
जबकि लिपि कहती रही आकर्षण है,
माना नहीं वो, उसने लिपि में बदलाव किया ऐसे
जैसे बदलता है हर कोस पे पानी और बोली।

आँखों की भाषा में उदासी इतनी बढ़ती गई कि
वो पिघलकर सामने वाले की आँखों मे भी उतर आई
ऐसे, जैसे कोई छूत की भयानक बीमारी हो।
अब लिपियाँ ऐसी दिखने लगीं जैसे अनपढ़ को अक्षर
दिल-ओ-जान से मान लिया गया कि
हाँ! प्रेम है, प्रेम है, प्रेम ही तो है।

प्रेम की चादर तनी
हँसी खिली, उदासी झरी, सपने मुस्कुराये
आवाज़ छूने से बदन महके, दिल लरजे
मौसम ख़ुशगवार हुए ऐसे जैसे
मैदानी देसों में रहने वाले बर्फीले पहाड़ों पे जाकर
सोचते रहे कि अगर यहां महीना इतना सुहाना है तो
पूरा साल कैसा होगा, इक बरस तो बसना चाहिए याँ।
बारिशें बस बरसने के लिये नहीं थीं, साथ भिगोने को थी
सर्दियाँ और भी रिश्तों की गर्माहट बढ़ाकर चली गईं
चाँदनी धूप इसके पहले कभी खिली ही नहीं।

इधर बीता बरस उधर रोगन प्रेम का उतरने लगा
ऐसे, जैसे धुलता हो झूठा रंग सादे पानियों से
साथ होने के मौसम बीते, गया आवाज़ का गीलापन,
साँसों की आँच बारिशों के साथ बुझने लगी।
बासी बातों की जिरह, तल्ख लहज़े, बेरुखी बढ़ी ऐसे
जैसे छू गई हो आग सूखे जंगलों को।

देर में समझे कि लिपि शुद्ध थी, भाषा गलत
पर दिल है जगह ऐसी कि खाली नहीं रहती
प्रेम उखाड़ बोई नफ़रत, कहा नफ़रत, सुना नफ़रत
अब लिपि भी शुद्ध और भाषा भी शुद्ध।

दरअसल प्रेम हमेशा इकतरफ़ा होता है
दूसरी तरफ़ से होती है दया, करुणा या प्रेम की भिक्षा
दोतरफ़ा तो नफ़रत ही होती है अपनी पूरी शुद्धता के साथ।