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लीबिया का राजकुमार / कंस्तांतिन कवाफ़ी / सुरेश सलिल

अरिस्तोमेनिस वल्द मेनेलओस —
पश्चिमी लीबिया के इस राजकुमार को
सामान्यतया पसन्द किया गया सिकन्दरिया में,
उन दस दिनों के दौरान, जो उसने वहाँ गुज़ारे ।

नाम के अनुरूप पोशाक भी वाजिब तौर पर यूनानी थी ।
प्रसन्नतापूर्वक उसने ग्रहण किए पुरस्कार सम्मान
किन्तु उनके लिए कृतज्ञता नहीं ज्ञापित की,
अहँकार नहीं था उसमें ।

उसने पुस्तकें ख़रीदीं, ख़ासतौर से इतिहास और दर्शन की
सबसे बढ़कर, वह मितभाषी था
इसका अर्थ लोगों ने यह लगाया, कि वह गम्भीर विचारक होगा

पर ऐसे लोग, स्वाभाविक तौर पर, बहुत ज़्यादा बोलते-चालते नहीं
वह कोई गम्भीर विचारक या वैसा कुछ क़त्तई नहीं था —
महज़ एक घालमेल था वह, हास्यास्पद आदमी ।

उसने एक यूनानी नाम रख लिया था, यूनानियों जैसी पोशाक पहन ली थी
कमोवेश किसी यूनानी की तरह पेश आना सीख लिया था
किन्तु हरक्षण दहशत से भरा रहता
कि बोलते हुए बरबरीअत भरी भद्दी भूलों से
वह अपनी वाजिब तौर पर ठीक-ठाक छवि को बरबाद कर डालेगा
और सिकन्दरिया के लोग, अपने सामान्य बर्ताव में
मज़ाक़ बनाने लगेंगे उसका — इतने घटिया हैं वे !

इस वजह से उसने खुद को चन्देक शब्दों तक ही सीमित रखा
उच्चारण और वाक्स-विन्यास में बुरी तरह चौकन्ना :

और इस बात ने दिमाग़ी तौर पर
लगभग पागल बना दिया उसे —
कितना कुछ कहने को था उसके मन में !

[1928]

इस कविता का केन्द्रीय चरित्र कवि-कल्पित और समय अस्पष्ट है। पहले यूनान में सामान्यतया अफ्रीका को लीबिया और वहाँ के लोगों को लीबियाई कहा जाता था।
 
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल