भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लील न लें / सांवर दइया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किसी धमाके के साथ
हडकंप मचाते हुए
खलनायक की तरह मंच पर
उपस्थित नहीं होता पतझड़

दबे पाँव आता हैं
लीलता है हरापन
धीरे-धीरे

और हमें खबर तक नहीं होती
झरने नही लगते जब तक
एक-एक कर शाख से पते
और देखते-ही-देखते
एक दिन
पूरा पेड़ हो जाता है नंगा

मित्रो !
अब बहुत ज़रूरी हो गया है
हर कदम पर सावधान रहना
दुनिया के किसी भी कोने से चलकर
आने वाले हितैषी
सिर सहलाकर
दो मीठे बोलो के बहाने
हमारे घर में बनाकर अपना घर
कहीं लील न ले सारा हरापन !