भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लुप्त होती भाषाएँ / कुमार विक्रम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कहते हैं
हज़ारों भाषाएँ लुप्त हुई जा रही हैं
वे अब उन पुराने बंद मकानो की तरह हैं
जिनमे कोई रहने नहीं आता
मकान से गिरती टूटी-फूटी कुछ ईंटें
बच्चों को संस्कारी बनाने के लिए
घर के मंदिर में बेढंग शब्दों जैसे
सहेज कर रख ली गयी हैं
जैसे बीती रात के कुछ सपने
दिन के उजाले में
आधे याद से और आधे धुंधले से
हमारा पीछा करते रहते हैं
लुप्त होती भाषाओं के नाम
अजीबो-ग़रीब से लगते हैं
साथ ही यह सूचना भी
कि उन्हें जानने-बोलने वालों की संख्या
कुछ दहाई अथवा सैकड़ों में ही रह गए हैं
कैसा वीभत्स-सा यह समय लग रहा है
जब प्यार की भाषा
अजनबियों के सरोकार जानने की भाषा
बीमार पड़े कमज़ोर वयक्तियों की
जुबान समझने की कला
या फिर उसका भाषा-विज्ञान
जानने-समझने-बोलने वालों की संख्या
दिन पर दिन घटती जा रही है.
 
‘उद्भावना ‘2015