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लेखक से / शिशु पाल सिंह 'शिशु'

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अरे दोनों हाथों दिन-रात, कहानी को लिखने वाले;
कभी सोचा भी कितने पृष्‍ठ अभी तक तुमने लिख डाले।
रही है कितनी स्‍याही शेष? रहा कितना कागज बाकी;
कलम में कितनी दम है और कहाँ पर इति है गाथा की।

सजाने को शीर्षक, अधिकांश समय का तो उपयोग किया;
किन्‍तु क्‍या उसके ही अनुरूप विषय को समुचित रूप दिया।
हुईं जो पहली चूकें उन्‍हें बचा पाये फिर या कि नहीं;
पड़े जो काले धब्‍बे उन्‍हें धुला पाये फिर या कि नहीं।

बिना समझे बूझे तुम और कहाँ तक लिखते जाओगे;
क्रियाओं में क्‍या पूर्ण-विराम, शाम तक नहीं लगाओगे।
बहुत लिखने में अधिक न सार-लेखनी को अवरुद्ध करो;
लिखा जो कुछ भी अब तक, उसे पढ़ो पढ़ करके शुद्ध करो।

कथानक की लम्‍बाई में न कहानी का गौरव मानो।
फूल की पंखड़ियों में बसी हुई खुशबू को पहचानो॥