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लेखनी अब हो गई स्थिर / राकेश खंडेलवाल

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भाव की बदली न छाती मन-गगन पर आजकल घिर

आँख से बहती नहीं अब कोई अनुभूति पिघल कर
स्वर नहीं उमड़े गले से, होंठ पर आये फिसल कर
उँगलियों की थरथराहट को न मिलता कोई साँचा
रह गया संदेश कोशिश का लिखा, हर इक अवाँचा

गूँजता केवल ठहाका, झनझनाते मौन का फिर

चैत-फागुन, पौष-सावन, कुछ नहीं मन में जगाते
स्वप्न सारे थक गये हैं नैन-पट दस्तक लगाते
अर्थहीना हो गया हर पल विरह का व मिलन का
कुछ नहीं करता उजाला, रात का हो याकि दिन का

झील सोई को जगा पाता न कंकर कोई भी गिर

दोपहर व साँझ सूनी, याद कोई भी न बाकी
ले खड़ी रीते कलश को, आज सुधि की मौन साकी
दीप की इक टिमटिमाती वर्त्तिका बस पूछती है
हैं कहाँ वे शाख जिन पर बैठ कोयल कूकती है

रिक्तता का चित्र आता नैन के सन्मुख उभर फिर

जो हवा की चहलकदमी को नये नित नाम देती
जो समंदर की लहर हर एक बढ़ कर थाम लेती
जो क्षितिज से रंग ले रँगती दिवस को यामिनी को
जो जड़ा करती सितारे नभ, घटा में दामिनी को

वह कलम जड़ हो गई, आशीष चाहे- आयु हो चिर