भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लेटी है माँ / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:40, 26 जून 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आँगन के बीचों बीच
सफ़ेद बुर्राक कपड़ों में
लेटी है माँ।
माँ जिसकी बातें
भोर की हवा
कुदकती अमराइयों में
बौर को सहलाती गुनगुनाती।
माँ ; जिसका स्पर्श
परियों की कथा सुनते बच्चे
अपने उलझे बालों में
महसूसते,
जिद्दी बच्चों की रुलाई
हथेलियों में डूब जाती
और फूट पड़ती
माँ जिसकी आँखों में था
सातों समंदर का पानी
सारे समंदर
तैरकर पार किए थे माँ ने
थकान को निगलते हुए।
माँ- जिसके जीवन का
कोई किनारा नहीं था
था सिर्फ़ सीमाहीन अंधकार
माँ थीं
बहुत दूर टिमटिमाती रोशनी
वही रोशनी नहा- धोकर
लेटी है आँगन में।
और मेरी बड़ी बहिन
बुत बनी बैठी है
आँखों की चमक गायब है
क्षितिज तक फैला है रेगिस्तान
न ही किसी काफ़िले का
दूर तक नामोनिशान,
सोचता हूँ इसकी आँखों के लिए
कहाँ से लाऊँ चमक
कहाँ से लाऊँ सूरज ­ धुली मुस्कान
और मेरी छोटी बहिन
उसके सिर का आकाश
लेटा है आँगन में
उसकी हिचकियाँ उसके आँसू
लगता है कायनात को डुबो देंगे
उसका ज़र्द चेहरा
साक्षात पीड़ा बन गया है
कहाँ से लाऊँ मैं आकाश,
जिसे उसके सिर पर ढक दूँ
कहाँ से लाऊँ वे हथेलियाँ,
जो उसके आँसू सोख लें
उँगलियाँ उलझे बालों को सुलझा दें
जो परियों की कहानी सुनाती माँ बन जाए
उसके जर्द चेहरे पर, गुलाब खिला दे।
कहाँ से लाऊँ वह मीठी नज़र?
वह तो लेटी है निश्चिंत होकर आँगन में।
मैं
भाई से तब्दील हो रहा हूँ
अचानक सफ़र पर निकले पिता में
आँगन में लेटी माँ में
ताकि लौटा सकूँ जो चला गया
जो लौटा सकता है ­आँखों की चमक
चेहरों के ओस नहाए गुलाब
बड़ी -से -बड़ी कीमत पर।