ले हाथों में अपने जो हल लिख रहा है / मधुभूषण शर्मा 'मधुर'
ले हाथों में अपने जो हल लिख रहा है ,
पढ़ो वो भी कोई ग़ज़ल लिख रहा है !
ये गेहूं के दाने तसव्वुर हैं उस का ,
हक़ीक़त की लेकिन फ़सल लिख रहा है !
ये कीचड़ से लथपथ बदन क्यूं न चमके ,
ये धरती पे कितने कँवल लिख रहा है !
वही एक काफ़िर पढ़े जो न उस को ,
ख़ुदा का जो हर पल फ़ज़ल लिख रहा है !
है लिखने का कोई मज़ा तो यही है ,
अगर युग पढ़ें वो जो पल लिख रहा है !
दरख़्तों के साए पे है हक़ तो उसका ,
कि जो धूप में आज , कल लिख रहा है !
है शायर ज़मीं पे तो वो कामगर है ,
` `मधुर' नक्ल है वो असल लिख रहा है !