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लोग/ प्रतिभा सक्सेना

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आज फिर एक डायन ,
बाँसों से खदेड़-खदेड़ यातनायें दे ,
 मौत के घाट उतार दी गई ।
 इकट्ठे हुये थे लोग
 यंत्रणाओं से तड़पती
नारी देह का मज़ा लेने !


खा गई पति को ,
 राँड है !
जादू-टोना करती चाट जाती बच्चों को ,
नज़र लगा कर ,चौपट करदे जिसे चाहे ,
.काली जीभ के कुबोल इसी के !


अकेली नारी !
बेबस ,असहाय !
कौन सुने उसकी ?
कहीं , कोई नहीं !


कोंच रहे हैं अंग-प्रत्यंग,
जितना दारुण यातना ,
उतनी ऊँची किलकारियाँ !
ख़ून से लथपथ,
मर्मान्तक पीड़ा से
ऐंठता शरीर ठेल-ठेल ,
ठहाके लगाते लोग !
उन्मादग्रस्त भीड़
 अकेली औरत !


बदहवास भागती है !
 जायेगी कहाँ !
कहाँ जायगी, डायन ?
दर्दीली चीखों से रोमांचित-उत्त्तेजित
पत्थर फेंक-फेंक हुमस रहे लोग !
प्राणान्तक यंत्रणायें देते
असह्य आनन्द से
किलकारियाँ मारते लोग !


कौन सी नई बात !
सदियों से हर बरस
यही लीला देखने
 इकट्ठा होते हैं -बड़े चाव से लोग  !


वही पुरानी कथा -
आती है एक नारी,
स्वयं -प्रार्थिता ,
नारीत्व की सार्थकता हेतु ,
पुरुष की कामना लिये !
और शुरू होता है तमाशा !


प्रर्थिता को एक दूसरे के पास फेर रहे
कंदुक सा बार-बार !
(पुरुष कहाँ अकेला ,
सब साथ होते हैं उसके !)
हो गई विमूढ़ , हास्य-पात्र ,
स्वयं-प्रार्थिता !
और तिरस्कार की असह व्यथा !
लोग रस विभोर !
उठ रहा है रोर !


क्रोध -औ'विरोध  !
कटु वचनों के कशाघात !
और फिर पौरुष का वार
अंग-भंग कर किया संपन्न महत्-कार्य !
उठी जय कार  !
समवेत अट्टहास !
 मुख विवर्ण -विकृत ,लिखी पीड़ा अपार
 ऐंठता-सा देह का आकार !


ठहाके लगाते लोग !
रक्त-धारायें बहाता तन ,
घोर चीत्कार करती ,
भागती है वह !
आनन्द से हुलसते ,
नाच उठते हैं लोग !


 सदियों से साल-दर साल
यही मनोरंजन होता आया है ,
 उत्सव यही देखने
 अब भी तो आते हैं ,
वीभत्स आनन्द के प्यासे लोग