Last modified on 25 सितम्बर 2013, at 11:53

लोग रहें निर्विवाद / मिथिलेश श्रीवास्तव

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:53, 25 सितम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मिथिलेश श्रीवास्तव |संग्रह=किसी ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

लोग अपनी जेबें उनकी जेबों में उंड़ेल देते हैं
वे जहाँ कहते हैं भीड़ बनकर खड़े हो जाते हैं
उनके उपद्रवी उत्सवों को जनकार्य मान लेते हैं
उनकी अपकीर्ति की पताक फहराते हैं
बाहर लॉन में बेंत की कुर्सीं पर उढँगे न्यायधीश की
अदालत में चली लगातार सुनवाई की रस्म के
महीने भर बाद आने वाले फ़ैसले को
अपने हक़ में हुआ मान लेते हैं
जैसा कि अक्सर वकील बताता है
एक मोटी रक़म फ़ीस की लेने के बाद ।
 
जितनी बार मिलते हैं हाल बताते हैं राय देते हैं
समस्याएँ सुनाते हैं मान्य समाधान बताते हैं
भूलकर भी नहीं खोलते समस्याएँ बदल लेते हैं
दफ़्तर बाज़ार या बच्चे को घुमाने गए आदमी
का घर नहीं लौटना कोई समस्या नहीं
लोकगीतों से परियों का गुम होना कोई समस्या नहीं
उजड़ना या उजाड़ देना महज़ एक वीडियो-गेम है
चाय में चीनी एक मध्यवर्गीय नशा है
वे जानते हैं
लोग इस नशे में डूबे रहना चाहते हैं
वे चाहते हैं संतरे, सेब और अंगूर की तरह रहें
लोग
निर्विवाद ।