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लोग / शंभुनाथ सिंह

        सोनहँसी हँसते हैं लोग
        हँस-हँस कर डसते हैं लोग ।

रस की धारा झरती है
विष पिए हुए अधरों से,
बिंध जाती भोली आँखें
विषकन्या-सी नज़रों से ।

        नागफनी को बाहों में
        हँस-हँस कर कसते हैं लोग ।

जलते जंगल जैसे देश
और क़त्लगाह से नगर,
पाग़लख़ानों-सी बस्ती
चीरफाड़घर जैसे घर ।

        अपने ही बुने जाल में
        हँस-हँस कर फँसते हैं लोग ।

चुन दिए गए हैं जो लोग
नगरों की दीवारों में,
खोज रहे हैं अपने को
वे ताज़ा अख़बारों में ।

        भूतों के इन महलों में
        हँस-हँस कर बसते हैं लोग ।

भाग रहे हैं पानी की ओर
आगजनी में जलते से,
रौंद रहे हैं अपनों को
सोए-सोए चलते से ।

        भीड़ों के इस दलदल में
        हँस-हँस कर धँसते हैं लोग ।

वे, हम, तुम और ये सभी
लगते कितने प्यारे लोग,
पर कितने तीखे नाख़ून
रखते हैं ये सारे लोग ।

        अपनी ख़ूनी दाढ़ों में
        हँस-हँस कर ग्रसते हैं लोग ।