भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लोहिया के न रहने पर / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:57, 12 अक्टूबर 2020 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लो , और तेज़ हो गया
उनका रोज़गार
जो कहते आ रहे हैं
पैसे लेकर उतार देंगे पार ।

तुम्हारी घनी भौहों के बीच की
वह गहरी लकीर
अभी भी गड़ी है वहाँ बल्ली-सी
जहाँ अथाह है जल
और तेज़ है धार ।

मैं साधारण…
(इसी शब्द से तो था
तुम्हें इतना प्यार)
कहता हूँ : ओ मेरे देशवासियों
एक चिनगारी और ।

बर्फ़ में पड़ी गीली लकड़ियाँ
अपना तिल-तिल जलाकर
वह गरमाता रहा,
और जब आग पकड़ने ही वाली थी
ख़त्म हो गया उसका दौर
ओ मेरे देशवासियों
एक चिनगारी और ।

ख़ाली पेट पर
जो रखकर चिराग़
तैराते जा रहे हैं
अपने ऐश्वर्य के सरोवर में ,
बुझती आँखों के जो
बनाकर बन्दनवार
सजाते जा रहे हैं
संसद और विधानसभाओं के द्वार
उनको गया है वह समूल झकझोर
ओ मेरे देशवासियों
एक चिनगारी और ।

अब वह नहीं है ‘गया’
यही शब्द देगा
फिर अर्थ नया ।
तीन आने भी जब नहीं बचेंगे जेब में
आँख पूरी खुलेगी जब
फँसे हुए झूठ में , फरेब में
उन्हीं घनी भौंहों की तब गहरी लकीर
करकेगी जैसे आधा चुभा तीर ।
ओ मेरे देशवासियों
छूट न जाए कहीं क्रान्ति की डोर
एक चिनगारी और ।

हाँ , वह गहरी लकीर
खेतों में हल के पीछे-पीछे चली गई है,
झोपड़ियों को थामे है शहतीर-सी
हर मोड़ पर मिलेगी इंगित करती ,
मजबूत रस्से की तरह ऊँचाइयों पर चढ़ाती
गहराइयों में उतारती ।

मैं साधारण …
वैसी नहीं दीखती है
मुझे कहीं और
ओ मेरे देशवासियों
उसके नाम पर
एक चिनगारी और ।

उसने थूका था इस
सड़ी – गली व्यवस्था पर
उलटकर दिखा दिया था
कालीनों के नीचे छिपा टूटा हुआ फ़र्श ,
पहचानता था वह उन्हें
जो रँगे-चुने कूड़े के कनस्तरों से
सभा के बीच खड़े रहते थे ।

उसके पास थी एक भाषा
प्यार और सम्मान से जीने के लिए
जिसे वह मन्त्र नहीं बनाता था ।
जहाँ सब सिर झुकाते थे
वहाँ भी उसका सिर ऊँचा उठा रहता था,
जिधर राह नहीं होती थी
उधर ही वह पैर बढ़ाता था
फिर बन जाती थी एक पगडण्डी
एक राजमार्ग जिन पर दूसरों के
नामों की तख़्तियाँ लग जाती थीं ।

निहत्था अकेला वह गुज़र गया
‘चौआलीस करोड़’ लोगों के
दिल में से नहीं एक जलती सलाख-सी
दिमाग़ से ।
अपनी ख़ाली जेबों में
पाओगे पड़ा हुआ तुम उसका नाम
इतिहास करे चाहे न करे अपना काम ।

सन्तों की दूकानों के आगे
खड़ी रहेगी उसकी मचान
भेड़ों के वेश में निकलते कमीने तेन्दुओं पर
तनी रहेगी उसकी दृष्टि ।
ओ मेरे देशवासियों
बनना हो जिसे बने नए युग का सिरमौर…
अभी तो उसके नाम पर
एक चिनगारी और ।

एक चिनगारी और –
जो ख़ाक कर दे
दुर्नीत को, ढोंगी व्य्वस्था को,
कायर गति को
मूढ़ मति को,
जो मिटा दे दैन्य, शोक, व्याधि,
ओ मेरे देशवासियों
यही है उसकी समाधि ।

मैं साधारण …..
मुझे नहीं दीखती कोई राह और
जिधर वह गया है
उधर उसके नाम पर
एक चिनगारी और ।