भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लो, संभाळौ थांरी दुनिया / पारस अरोड़ा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

म्हैं कठी सूं ईं खराब नी करी
थांरी दुनिया
ही जिणसूं फूटरी अर अकलमंद
नित नवा मान-मोल थरपती
आ दुनिया
पाछी थानै घणै मांन सूं सूंपूं
लो, सावळ संभाळौ थांरी दुनिया !
कितौ करियौ हेत’र
कैड़ौ बदळौ साज्यौ।
संवेटी ऊंचायां सगळी
सोरप रा साधन दिया अनेक
ज्ञान-विज्ञान मुट्ठियां बंद
सिकुड़ती जाय धरा दिन-रात
पण
इण दिस मे मुड़ती-मुड़ती
आ उण दिस क्यूं लुळ जाय
समझ नीं आय।
धार्यां अंग-अंग बारूद
जंग नै अस्टपौर तैयार
पिघळयौ मिनखपणौ आंख्यां में
नस-नस विस-वैल्यां रौ जाळ
होठां रगत-रंग पोत्योड़ी
तीखा नख धंसावती बोट्यां
इण सरीर
कोई निसांण मंडियोड़ा
अर
आ ऊभी मुळकै है
थांरी दुनिया
तौ ई जिणनै
चेप कळेजै लायौ हूं म्हैं
लो, पाछी संभाळी थांरी दुनिया !

बल-बल’र बुझावतौ रैयौ
बारूदी सुरंगां
विस-थैल्यां चीरी कीं घाव खाय
मर-खपनै माटी रौ मान कियौ
तुट्यां ईं तोड़या कीं तेज दंत
इण बदळै-
धीरै-धीरै अै सगळा मिळ
देही नै कस लीनी?
इण सिकंजै
तूटणै अर बिखरणै पैली
थां सूं लीनी
थांनै पाछी
सूंपू थांरी दूनिया।

लो, संभाळौ
म्हैं कठी सूं ईं खराब नीं करी
थांरी दुनिया।