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लो माँगने को कवच-कुण्डल का तुम्ही से वर / राजेन्द्र गौतम

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लो माँगने को कवच-कुण्डल का तुम्ही से वर ।
उगने लगे हैं मंच से फिर भाषणों के स्वर ।।

फिर जा रही रोपी यहाँ पर फ़सल नारों की,
वे ही कँटीली झाड़ियाँ देगा मगर ऊसर ।

कैसे उड़ेंगे, पंख कतरे रहनुमाओं ने,
लाचार हो बैठे, बँधे हैं पाँव में पत्थर ।

पुल ज्योति के हैं तोड़तीं लहरें अन्धेरों की,
देगा नहीं कोई तुम्हें सूरज नया लाकर ।

दरके हुए इन आइनों में अक्स उनके हैं,
पाकीज़गी का जो ढिण्ढोरा पीटते अक्सर ।