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लो समंदर को सफ़ीना कर लिया / कविता किरण

लो समंदर को सफ़ीना कर लिया,
हमने यूँ आसान जीना कर लिया।

अब नहीं है दूर मंज़िल सोचकर,
साफ़ माथे का पसीना कर लिया।

जीस्त के तपते झुलसते जेठ को,
रो के सावन का महीना कर लिया।

आपने अपना बनाकर हमसफ़र,
एक कंकर को नगीना कर लिया।

हँस के नादानों के पत्थर खा लिए,
घर को ही मक्का-मदीना कर लिया।