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लौटकर आओ चले / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान


लौटकर आओ चले

लौटकर आओं चलें हम गाँव अपने,
अब हमारा मन कहीं लगता नहीं
 
जेब मे सिक्के भरे हैं कंकड़ों से
चक्र सी नियमित हुयी है जिन्दगी,
व्यस्तता तन पर खिली परिधान बनकर
औपचारिक हो गयी है बन्दगी,
मन बिंधे हैं शून्यता के सर्प ऐसे
दिवस कोई चैन से कटता नहीं

व्यर्थ की मुस्कान से हैं अधर संवरे
बात के अन्दाज हैं तौले सधे,
इस तरह हित साधना में मग्न जैसे
सूर्य के पग अनवरत क्रम से बंधे,
है तनावों का उछलता ज्वार मन में
किन्तु दिखता आज कुछ घटता नहीं

चल रहे पुष्पक सरीखी गति पकड़कर
धन कुबेरों से मिले आवास है,
रूढ़ियाँ होकर पराजित सर्प जैसी
ले रही अब टोकरी में बास है,
बीतता है हर दिवस अब हलचलों में
पर कहीं उल्लास है दिखता नहीं