Last modified on 10 नवम्बर 2017, at 11:58

लौटना मुमकिन न होगा / अनीता सिंह

Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:58, 10 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनीता सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGee...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

लौटना मुमकिन न होगा
ऐ! नदी धीरे बहो।

तुमसे जुड़ते दो किनारे
पत्रवाहक तेरे धारे
तेरी लहरें चूमती हैं
जब भी तुमको ये पुकारे।
हो सके तो संग दरिया के
किनारों, तुम बहो।

बाग़ में जब कदंब फूलें
डाल पर पड़ते हैं झूले
हसरते भी पेंग भरकर
चाहती हैं गगन छूलें।
जब तलक कोयल न कूके
तुम, बहारों चुप रहो।

चाँदनी आँचल सम्हारे
चाँद दरिया में उतारे
रजतघट में अमिय भरके
छिड़क आती नगर-द्वारे।
रूप को भरकर नज़र में
तुम, नज़ारों चुप रहो।