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लौटना है साँझ तक अपने बसेरे / मणिभूषण सिंह

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चाहता हूँ, गा सकूँ सब गीत जल्दी।
मत कहो, गाने चले इतने सवेरे॥

मुझे सब दिन से यही लगता रहा है।
हर सुबह कम हो रहे हैं दिवस मेरे॥
 
भोगता हूँ अनुभवों के भोग निशिदिन।
व्यक्त कर लूँ भाव के बादल घनेरे॥
 
शब्द सुंदरतम सजा लूँ गीत में भर
प्रकट कर दूँ चेतना के चिह्न मेरे॥
 
मुक्त विहगों की तरह निष्ठा बँधी है।
लौटना है साँझ तक अपने बसेरे॥