गांव खड़े उस निपट अकेले
घर के सूने गलियारों से,
सालों पहले जो लटकाये
सूख चुके बंदनवारों से,
जिनकी लौ में गुजरा बचपन
ताख पड़े उन दीयों से पूछो,
क्या कहता वह नीम अकेला
रंग उड़ी उन दीवारों से!
पुरवाई हिचकोले खाती
कुएँ पर टंगी बाल्टी कहती,
सून पड़े मिट्टी पर जितने
कूद बनाए पद छापों से,
आयेगा वह बचपन फिर से
फिर गूंजेगी वह किलकारी,
लौट आयेगा गाँव मेरा फिर
दूर शहर के आयामों से!