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वक़्त का दामन फिसलता जा रहा है / शुभा शुक्ला मिश्रा 'अधर'

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वक़्त का दामन फिसलता जा रहा है।
उम्र का पल-पल निकलता जा रहा है॥

हो गई है ज़िन्दगी वीरान जैसी.
किस तरह सबकुछ बदलता जा रहा है॥

क्या पता ये राह निकलेगी कहाँ पर।
ये जमाना जिस पर चलता जा रहा है॥

घुल रहा है संखिया कितना हवा में।
हर तरफ मौसम बदलता जा रहा है॥

सोच में चिनगारिया-सी उठ रहीं अब।
मन में' इक अरमाँ मचलता जा रहा है॥

मौन होती जा रही हैं कामनाएँ।
शोर में माहौल ढलता जा रहा है॥

देखते हैं आसमाँ के ख्वाब तो सब।
हौसला लेकिन पिघलता जा रहा है॥

बेटियाँ बिंदास होती जा रहीं तो।
हाथ से बेटा निकलता जा रहा है॥

कौन हो सकता है इक माँ के अलावा।
जिसका आशिष् है कि फलता जा रहा है॥