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वक़्त के मानिंद / संध्या रिआज़

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गुज़रते वक्त के मानिंद
कतरा- कतरा पिघलती ज़िन्दगी के साथ
कुछ ख्वाहिषों को पाने की खातिर
कुछ ग़मों को भूलने की कोषिष के साथ
किसी अपनों के हाथों को थाम
भीड़ में कभी अकेले गुम होकर भी
अकेले-अकेले चलकर सालों बिता दिये
किस-किस से किस-किस की बात कहें हम

कई रातों में बहे आंसुओं ने देखा है हमें
कई राहों ने भटकते देखा है हमें
दिन-रात पहर दो-पहर पल -दो -पल
सब जानते हैं
जिं़न्दगी आसान न थी जो जी चके हैं हम

ज़िन्दगी आसान होगी या नहीं कौन बता पायेगा
लोग हाथों के लकीरों के नक्षे दिखाकर
रास्ता पूछते हैं
कौन अपने रास्तों को
लकीरों में बदलने का हुनर देगा हमें

नज़र बदलने लगी पैर भी डगमगाने लगे
न जाने ये रास्ते कब खत्म होंगे
जो मंज़िल पे पहुंचा पायेंगे हमें
खामखां भागते-भागते सारी जद्दोज़हद के बाद भी
हम खाली हैं झोली खाली है
अपने भी अपने कहां हो पाते हैं
उनकी अपनी ज़िन्दगी की बेचारगी है
एक छोर पर पहुंच चुके हैं अब
आगे जाने का दिल नहीं
सांसे भी दिल से खफा हो चली हैं
लगता है कोई आया है लेने

दर्द सारे छू होने लगे सांसें परायी होने लगीं ़
ये सुकून कहां था अब तक जिसके लिये
उम्रभर ज़िन्दगी को हम रुलाते रहे
अब ठीक नहीं है
दुःख नहीं,दर्द नहीं,मंज़िल नहीं,राहें नहीं
आंखें बंद होते ही सारे बवालों से बच गये
सांस रुकते ही अनजानी थकन से बच गये
मौत क्या इसे कहते हैं तो यही बेहतर है
न हम हैं न हमारे हैं न दुनिया के झंझट हैं
एक रौषनी की मानिंद,एक वक्त की मानिंद
हम गुज़रते गये
षायद कुछ लम्हे ही थे वो
जो हमें अपने साथ ले गये और कितने जाहिल थे हम
उम्र भर जो न साथ जाना था उसके लिये लड़ते रहे
खैर अब सुकून है,कुछ ठण्ड है रवां रवां
कहां हैं? कहां जाना है? इसका कोई ग़म नहीं
ज़िन्दगी नहीं तो हम नहीं