भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वक़्त के साँचे में ढल कर हम लचीले हो गए / देवमणि पांडेय
Kavita Kosh से
वक़्त के साँचे में ढल कर हम लचीले हो गए।
रफ़्ता-रफ़्ता ज़िन्दगी के पेंच ढीले हो गए।
इस तरक़्क़ी से भला क्या फ़ायदा हमको हुआ
प्यास तो कुछ बुझ न पाई, होंठ गीले हो गए।
जी हुज़ूरी की सभी को इस क़दर आदत पड़ी
जो थे परबत कल तलक वो आज टीले हो गए।
क्या हुआ क्यूँ घर किसी का आ गया फुटपाथ पर
शायद उनकी लाडली के हाथ पीले हो गए।
आपके बर्ताव में थी सादगी पहले बहुत
जब ज़रा शोहरत मिली तेवर नुकीले हो गए।
हक़ बयानी की हमें क़ीमत अदा करनी पड़ी
हमने जब सच कह दिया वो लाल-पीले हो गए।
हो मुख़ालिफ़ वक़्त तो मिट जाता है नामो-निशाँ
इक महाभारत में गुम कितने क़बीले हो गए।