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वक्त की किरचनें / निधि सक्सेना

एक समय वो भी रहा
जब हर चीज़ कस कर पकड़ने की आदत थी
चाहे अनुभूतियाँ हों
पल हों
रिश्ते हों
या कोई मर्तबान ही
मुट्ठियाँ भिंची रहती

जब स्थितियाँ बदलतीं
और चीज़े हाथ से फिसलती
तो नाखूनों में रह जाती किरचनें
स्मृतियों की
लांछनों की
छटपटाहटों की
कांच की

अजीब सा दंश था
कि मैं दिन भर नाखून साफ करती
और रात भर किरचनों की गर्त मझे खरोंचती
वक्त उन्ही किरचनों में भटकता रहता
मैं बेबसी और कुंठा से भरती जाती

परंतु अब सीख लिया है
चीज़ों को हल्के हाथ से पकड़ना
वक्त को मुक्त रखना
जाती हुई चीज़ो को विसर्जित कर देना

नाखूनों में कोई किरचन गर रह गई हो
तो बगैर गौर किये
भूलते जाना भुलाते जाना

कि ऐ जिन्दगी
उम्मीद का सेहरा बाँध कर आना
तुझे बीते वक्त की हर किरचन से मुक्त रखने का वादा है मेरा.