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वन-झरने की धार / अज्ञेय

 मुड़ी डगर
मैं ठिठक गया।
वन-झरने की धार
साल के पत्ते पर से
झरती रही।
मैं ने हाथ पसार
दिये, वह शीतलता चमकीली
मेरी अँजुरी भरती रही।
गिरती बिखरती
एक कल-कल
करती रही :
भूल गया मैं क्लान्ति, तृषा,
अवसाद; याद
बस एक
हर रोम में
सिहरती रही।
लोच-भरी एड़ियाँ-
लहरती
तुम्हारी चाल के संग-संग
मेरी चेतना
विहरती रही।
आह! धार वह वन-झरने की
भरती अँजुरी से
झरती रही।
और याद से सिहरती
मेरी मति
तुम्हारी लहरती गति के
साथ विचरती रही।
मैं ठिठक रहा
मुड़ गयी डगर
वन-झरने-सी तुम
मुझे भिंजाती
चली गयीं सो
चली गयीं...

1972